भारत में क्रांतिकारी आंदोलन का उदय कब हुआ ?
भारत में क्रांतिकारी आंदोलन का उदय
➤ भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के द्वितीय चरण को नवराष्ट्रवाद या उग्रवाद के उदय का काल कहा जाता है। उग्रवादी उदारवादी नेताओं के आदर्शों व नीतियों के घोर विरोधी थे और उन्होंने उदारवादियों की अनुनय-विनय की प्रवृत्ति को राजनीतिक भिक्षावृत्ति की संज्ञा दे डाली। इनका उद्देश्य ब्रिटिश सरकार से अपने अधिकारों की भीख मांगना नहीं वरन् सरकार का विरोध करते हुए स्वराज्य प्राप्त करना था।
ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीति (लाल, बाल और
पाल)
➤ उग्रवादी नेताओं में लाला लाजपतराय बाल गंगाधर तिलक, विपिनचन्द्र
पाल एवं अरविन्द घोष थे। लाला लाजपतराय ने 'पंजाबी
बालगंगाधर तिलक ने केसरी तथा विपिनचन्द्रपाल ने 'न्यू इंडिया
नामक पत्रों के माध्यम से ब्रिटिश सरकार पर करारा प्रहार किया ।
सरकार ने राष्ट्रवादी आंदोलन को दबाने की बहुत कोशिश की। 1907 और 1908 में बने दमनात्मक कानूनों ने किसी प्रकार के राजनीतिक आंदोलन को खुले रूप से चलाना असंभव बना दिया। प्रेस की स्वतंत्रता नष्ट कर दी गई और सभाओं, जुलूसों आदि पर प्रतिबंध लगा दिया गया। स्वदेशी कार्यकर्ताओं पर मुकदमे चलाये गये और उन्हें लंबी-लंबी सजाएँ दी गई। अनेक छात्रों को शारीरिक दंड तक दिये गये।
क्रांतिकारी आंदोलन के उदय के क्या कारण थे?
➤ क्रांतिकारी राष्ट्रवादी शीघ्रातिशीघ्र अपनी मातृभूमि को विदेशी दासता से मुक्त कराना चाहते थे और इसके लिए उन्होंने आयरलैंड के राष्ट्रवादियों और रूसी निहिलिस्टों (विनाशवादियों) व पापुलिस्टों के संघर्ष के तरीकों को अपनाया। इन जुझारू राष्ट्रवादियों ने अंग्रेज अधिकारियों की हत्या की योजना बनाई, बम फेंके एवं गोलियाँ चलाई। क्रातिकारियों का मानना था कि इस तरह की हिंसात्मक कार्रवाई में अंग्रेजों का दिल दहल जायेगा, भारतीय जनता को संघर्ष की प्रेरणा मिलेगी और उनके मन से अंग्रेजी शासन का भय खत्म हो जायेगा।
उग्रवादी तथा क्रांतिकारी आन्दोलन के राजनीतिक कारण
सरकार द्वारा कांग्रेस की मांगों की उपेक्षा करना -
➤ 1892 ई. के भारतीय परिषद् अधिनियम द्वारा जो भी सुधार किये गये
थे, अपर्याप्त
एवं निराशाजनक थे। लाला लाजपत राय ने कहा, 'भारतीयों को अब
भिखारी बने रहने में ही संतोष नहीं करना चाहिए और न उन्हें अंग्रेजों की कृपा पाने
के लिये गिड़गिड़ाना चाहिए। " इस प्रकार इस समय के महान उग्रवादी नेताओं (लाल, बाल एवं पाल)
को उदारवादियों को भिक्षावृत्ति की नीति में एकदम विश्वास नहीं रहा। उन्होंने
निश्चय किया कि स्वराज्य की प्राप्ति रक्त और शस्त्र से ही संभव हैं।
ब्रिटिश सरकार की भारतीयों के प्रति दमनकारी नीति
➤ 1892 से 1906 ई. तक
ब्रिटेन में अनुदार दल सत्तारूढ़ रहा। यह दल अत्यंत ही प्रतिक्रियावादी था। 1897 ई.
में श्री तिलक को राजद्रोह के अपराध में कैद कर लिया गया और उन्हें 18 महीने का कठोर
कारावास दिया गया। श्री तिलक की गिरफ्तारी से सारा देश रो पड़ा। सरकार के क्रूर
कृत्यों से सारे देश में क्रोध एवं प्रतिशोध की भावना उमड़ पड़ी।
उग्रवादी तथा क्रांतिकारी आन्दोलन के आर्थिक कारण
दुर्भिक्ष एवं प्लेग का प्रकोप
➤ 1876 से 1900 ई. तक
देश के विभिन्न भागों में 18 बार
दुर्भिक्ष पड़ा।
1896-97 ई०
में बंबई में सबसे भयंकर अकाल पड़ा। लगभग दो करोड़ लोग इसके शिकार हुए। सरकार अकाल
पीड़ितों की सहायता करने में असमर्थ रही। अतः भारतीयों ने यह निश्चय किया कि
उन्हें ब्रिटिश सरकार अंत करना ही हैं चाहें इसके लिये उन्हें हिंसात्मक साधनों का
सहारा ही क्यों न लेना पड़े।
उग्रवादी तथा क्रांतिकारी आन्दोलन के धार्मिक तथा सामाजिक
कारण
भारतीयों में जागृति
➤ 19 वीं
शताब्दी में स्वामी विवेकानन्द,
लोकमान्य तिलक,
विपिनचन्द्र पाल,
अरविन्द घोष इत्यादि ने प्राचीन भारतीय धर्म एवं संस्कृति को श्रेष्ठ बताकर
भारतीय युवकों में आत्म विश्वास की भावना उत्पन्न की पुनरुत्थानवादी नेता धर्म की
ओट में उग्र राष्ट्रीयता का प्रचार करने लगे। विपिनचन्द्र पाल ने काली एवं दुर्गा
का आह्वान कर बताया कि "स्वतंत्रता हमारे जीवन का ध्येय है एवं इसकी प्राप्ति
हिन्दू धर्म से ही संभव है।
भारतीयों के साथ विदेश में अभद्र व्यवहार
➤ विदेशों में भी भारतीयों के साथ अभद्र एवं अन्यायपूर्ण
व्यवहार किया जाता था। अंग्रेज भारतीयों को काला आदमी समझते थे एवं उनको घृणा की
दृष्टि से देखते थे। अंग्रेजी समाचार पत्र जातिभेद का तीव्र प्रचार कर रहे थे।
दक्षिण अफ्रीका के प्रवासी भारतीयों के साथ तिरस्कारपूर्ण और निन्दनीय व्यवहार
किया जाता था।
➤ लार्ड कर्जन की निरकुंशतापूर्ण प्रशासनिक नीति ने भी भारतीय
राष्ट्रीय आन्दोलन में उग्रवाद के जन्म को अवश्यंभावी कर दिया। उसने भारतीयों की
भावनाओं पर बिल्कुल ध्यान न दिया ।
पाश्चात्य क्रांतिकारी सिद्धान्तों का प्रभाव
➤ 1905
में जापान के हाथों रूस की पराजय से पश्चिम की श्रेष्ठता का दंभ टूट गया।
फ्रांस, अफ्रीका, आयरलैंड आदि
देशों की जनता ने जिस प्रकार अपने अधिकारों के लिए संघर्ष किया, वह भारतीय
युवकों के लिए आदर्श बन गया। अब भारतीय युवकों में यह भावना पैदा हो गई कि प्राण
देने से पहले प्राण ले लो। यूरोप के देशों के क्रांतिकारी आंदोलनों एवं अन्य
यूरोपीय गुप्त दलों द्वारा अपनाये गये षड्यंत्रकारी अध्ययन ने कुछ भारतीयों को
हिंदुस्तान में भी आतंकवादी संगठन और कार्य प्रणाली की प्रेरणा दी।
बंगाल विभाजन प्रभाव बंग-भंग आंदोलन (सन् 1905)
➤ बंगाल प्रेसीडेन्सी तत्कालीन सभी प्रेसीडेन्सियों में बड़ी
थी। इसमें पश्चिम और पूर्वी बंगाल (बांग्लादेश) सहित बिहार (वर्तमान झारखण्ड भी)
और उड़ीसा शामिल थे।
➤ असम बंगाल से 1874 में ही अलग हो चुका था। अंग्रेज सरकार ने बंगाल को विभाजित
करने का कारण यह बताया कि इतने बड़े प्रांत को विभाजित किए बिना इसका शासन
सुव्यवस्थित रूप से नहीं किया जा सकता। जबकि विभाजन का वास्तविक कारण यह था कि
बंगाल उस समय राष्ट्रीय चेतना का केन्द्र बिन्दु था और इसी चेतना को नष्ट करने
हेतु बंगाल विभाजन का निर्णय लिया गया और 20 जुलाई 1905 को
बंगाल विभाजन के निर्णय की घोषणा कर दी।
➤ विभाजन के बाद पूर्वी बंगाल और असम को मिलाकर एक नया प्रांत
बनाया गया जिसमें राजशाही,
चटगाँव और ढाका नामक तीन डिवीजन सम्मिलित थे। ढाका यहाँ की राजधानी थी।
विभाजित बंगाल के दूसरे भाग में पं. बंगाल, बिहार और उड़ीसा
शामिल थे। 16
अक्टूबर 1905
को बंगाल विभाजन प्रभावी हो गया। यह दिन समूचे बंगाल में शोक दिवस के रूप में
मनाया गया, लोगों
ने उपवास रखा वन्देमातरम गीत गाया और सारे बंगाल के लोगों ने चाहे वे हिन्दू हो या
मुसलमान हों या ईसाई हों,
एक दूसरे को राखी बाँधी ।
➤ बंगाल विभाजन के विरोध में जो आंदोलन चलाया गया उसे स्वदेशी
आंदोलन या बंग भंग विरोधी आंदोलन कहते हैं। इस समय चलाए गए बहिष्कार आंदोलन के
अंतर्गत न केवल विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार किया गया बल्कि स्कूलों, अदालतों, उपाधियों एवं
सरकारी नौकरियों आदि का भी बहिष्कार किया गया। जबकि स्वदेशी वस्तुओं के प्रचार के
अन्तर्गत हथकरघा उद्योगों में वृद्धि हुई।
मार्ले मिन्टो सुधार
➤ 1909 में
मार्ले मिन्टो सुधार पारित किया गया जिसके अन्तर्गत मुसलमानों के लिए पृथक
मताधिकार तथा पृथक निर्वाचन क्षेत्रों की स्थापना की गई इस सुधार ने हिन्दू और
मुसलमानों के बीच खाई और चौड़ी कर दी।
क्रांतिकारी आंदोलन का पुनरोदय
➤ राष्ट्रवादी जनमत को संतुष्ट करने और मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों
को लागू करने हेतु सद्भावपूर्ण वातावरण बनाने के लिए सरकार ने 1920 के
शुरू में क्रांतिकारी राष्ट्रवादियों को आम माफी देकर जेल से रिहा कर दिया।
किंतु चौरी चौरा कांड (4 फरवरी, 1922) के कारण अहिंसा के सिद्धांत पर प्रश्नचिन्ह लगाना प्रारंभ कर दिया। असहयोग आंदोलन के दौरान 16 वर्षीय किशोर चंद्रशेखर जब पहली और अंतिम बाट गिरफ्तार हुए थे।
➤ अधिकांश युवकों का अहिंसक आंदोलन की विचारधारा से विश्वास
उठ गया और उन्हें लगने लगा कि देश को सिर्फ क्रांतिकारी मार्ग द्वारा ही मुक्त
कराया जा सकता है। फलतः बंगाल,
संयुक्त प्रांत और पंजाब में शिक्षित युवक क्रांतिकारी तरीकों की ओर आकृष्ट
होने लगे। बंगाल में पुरानी अनुशीलन तथा युगांतर समितियाँ पुनः जाग उठीं तथा
उत्तरी भारत के लगभग सभी प्रमुख नगरों में क्रांतिकारी संगठन बन गये।
➤ क्रांतिकारी विचारधारा के प्रायः सभी प्रमुख नेताओं, जैसे-
योगेशचंद्र चटर्जी,
सूर्यसेन,
भगतसिंह,
सुखदेव,
चंद्रशेखर आजाद,
शिववर्मा,
भगवती चरण बोहरा,
जयदेव कपूर व जतीनदास ने गांधी के असहयोग आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई थी।
➤ क्रांतिकारी आंदोलन के इस चरण में मुख्यतः दो धाराएँ विकसित
हुई- पंजाब,
उत्तर प्रदेश एवं बिहार में हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन या आर्मी
(एच.आर.ए.),
नौजवान सभा और बंगाल में युगांतर, अनुशीलन समितियाँ तथा सूर्यसेन के नेतृत्व में चटगाँव
विद्रोह समूह ।
हिंदुस्तान प्रजातांत्रिक संघ (HRA)
➤ उत्तर प्रदेश एवं बिहार में क्रांतिकारी आतंकवादी गतिविधियों का संचालन मुख्य रूप से हिंदुस्तान प्रजातांत्रिक संघ (हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन) ने किया। इसका गठन अक्टूबर 1924 में कानपुर में क्रांतिकारी युवकों के एक अखिल भारतीय सम्मेलन में किया गया, जिसमें सयुक्त प्रांत में रहनेवाले बंगाली सचिन सान्याल और जोगेश चटर्जी के अलावा अशफाकउल्ला खाँ, रोशनसिंह और रामप्रसाद बिस्मिल जैसे पुराने नेताओं के साथ भगतसिंह, शिववर्मा, सुखदेव, भगवतीचरण बोहरा और चंद्रशेखर आजाद जैसे नये नेता भी शामिल हुए थे। इस संगठन का उद्देश्य सशस्त्र क्रांति के माध्यम से औपनिवेशिक सत्ता को उखाड़ फेंकना और एक संघीय गणतंत्र संयुक्त राज्य भारत' (यूनाइटेड स्टेट्स आफ इंडिया) की स्थापना करना था, जिसका मुख्य आधार वयस्क मताधिकार हो।
➤ ब्रितानी सरकार ने इस क्रांतिकारी संगठन पर कड़ा प्रहार किया। हिंदुस्तान प्रजातांत्रिक संघ की ओर से प्रकाशित इश्तहार और उसके संविधान को लेकर बंगाल पहुंचे दल के नेता सचिन माया बाँकुड़ा में गिरफ्तार कर लिये गये। जोगेश चटजीं एच. आर. ए. के संविधान की ढेर सारी प्रतियों के साथ हावड़ा में पकड़े गये और हजारीबाग जेल में बंद कर दिये गये। दोनों प्रमुख नेताओं की गिरफ्तारी के कारण रामप्रसाद बिस्मिल के कंधों पर उत्तर प्रदेश के साथ-साथ बंगाल के क्रांतिकारी आंदोलन का उत्तरदायित्व भी आ गया।
➤ क्रांतिकारियों द्वारा चलाये जा रहे राष्ट्रीय आंदोलन को
गति देने के लिए धन की आवश्यकता पहले भी थी, किंतु अब यह
आवश्यकता और भी अधिक बढ़ गई थी। धन की व्यवस्था करने के लिए बिस्मिल ने 8 अगस्त, 1925 को
शाहजहाँपुर में बैठक कर सरकारी खजाना लूटने की योजना बनाई।
काकोरी ट्रेन एक्शन (9 अगस्त, 1925)
➤ ऐतिहासिक काकोरी ट्रेन एक्शन' भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के क्रांतिकारियों द्वारा सरकारी खजाना लूटने की एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के केवल दस सदस्यों- जिसमें शाहजहाँपुर के रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्ला खाँ, मुरारी तथा बनवारी लाल, बंगाल के राजेंद्र लाहिड़ी, सचिन सान्याल तथा केशव चक्रवर्ती (छद्मनाम), बनारस के चंद्रशेखर आजाद तथा मन्मथनाथ गुप्त एवं औरेया के मुकुदीलाल शामिल थे, ने 'काकोरी ट्रेन एक्शन' को अंजाम दिया।
➤ 9 अगस्त, 1925 को
बिस्मिल के नेतृत्व में 8 डाउन
सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर रेलगाड़ी को शाहजहाँपुर के काकोरी रेलवे स्टेशन से छूटने पर
ट्रेन को रोककर सरकारी खजाना लूट लिया गया।
➤ ब्रिटिश सरकार ने काकोरी ट्रेन डकैती के ऐतिहासिक मुकदमे
में 'रामप्रसाद
'बिस्मिल', अशफाकउल्ला खाँ, ठाकुर रोशनसिंह
और राजेंद्रनाथ लाहिड़ी को फाँसी,
चार को आजीवन कारावास और 17 अन्य
लोगों को लंबी-लंबी कैद की सजा मिली।
➤ 19
दिसंबर,
1927 को रामप्रसाद बिस्मिल गोरखपुर जेल में यह कहकर हँसते हुए फाँसी पर लटक गये कि, "मैं
अंग्रेजी राज्य के पतन की कामना करता हूँ।"
➤ ठाकुर रोशनसिंह इलाहाबाद के नैनी जेल में वंदेमातरम् गाते
हुए शहीद हो गये।
➤ अशफाकउल्ला खाँ ने इसी प्रकार फैजाबाद जेल में फांसी के समय
कहा कि "आप सब एक होकर नौकरशाही का सामना कीजिए। मैं हत्यारा नहीं हूँ, जैसा मुझे
साबित किया गया है।"
➤ इसके पहले 17 दिसंबर,
1927 को गोंडा जेल में राजेंद्रनागर फांसी के फंदे को चूम चुके थे।
नौजवान सभा की स्थापना किसने की?
भगतसिंह
➤ सरदार भगतसिंह ने यशपाल तथा छबीलदास के साथ मिलकर पंजाब में
1926 में
नौजवान सभा की स्थापना की। भगतसिंह नौजवान सभा के सचिव थे।
➤ नौजवान सभा का उद्देश्य जनता में क्रांतिकारी चेतना लाना और
संवैधानिक संघर्ष के विरुद्ध लोगों में प्रचार करना था। यह सभा संगठित भारत
राष्ट्र का निर्माण करने के लिए नवयुवकों में देशभक्ति की भावना को जाग्रत करके
तथा मजदूरों और किसानों को संगठित कटके भारत में स्वतंत्र मजदूर- किसानों का राज्य
स्थापित करना चाहती थी।
➤ नौजवान सभा के तत्वावधान में भगतसिंह और सुखदेव ने खुले तौर
पर काम करने के लिए लाहौर छात्र संघ का गठन किया।
➤ भगतसिंह और उनके साथी क्रांतिकारी बुद्धिजीवियों के नेतृत्व
में समाज के दलित,
शोषित व गरीब तबके के जन-आंदोलन का विकास करना चाहते थे।
हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक संघ (9-10
सितंबर,
1928)
➤ हिंदुस्तान प्रजातांत्रिक संघ के जो सदस्य गिरफ्तार होने से
बच गये थे, उन्होंने
नये सदस्य बनाये और पंजाब के प्रतिभाशाली युवा विद्यार्थी भगतसिंह के नेतृत्व में
उभरनेवाले समूह के साथ संबंध स्थापित किये।
➤ उत्तर प्रदेश में विजयकुमार सिन्हा, शिववर्मा और
जयदेव कपूर तथा पंजाब में भगतसिंह, भगवतीचरण बोहटा और सुखदेव ने चंद्रशेखर आजाद के नेतृत्व में
हिंदुस्तान प्रजातांत्रिक संघ'
को फिर से संगठित करना शुरू किया। इस समय युवा क्रांतिकारियों पर समाजवादी
विचारधारा का प्रभाव स्पष्ट दिखने लगा था।
"हम दया की भीख नहीं माँगते हैं। हमारी लड़ाई आखिरी
फैसला होने तक की लड़ाई है,
यह फैसला है- विजय या मौत।"
सांडर्स की हत्या कब हुयी थी?
सांडर्स की हत्या
➤ जब 30
अक्टूबर,
1928 को लाहौर में साइमन कमीशन के विरुद्ध प्रदर्शन में पुलिस के बर्बर लाठीचार्ज
से घायल पंजाब के नेता लाला लाजपतराय शहीद हो गये, तो युवा
क्रांतिकारियों का खून खौल उठा। भगतसिंह और उनके साथी क्रांतिकारियों की दृष्टि
में यह राष्ट्र का अपमान था,
जिसका उत्तर केवल खून का बदला खून' है।
➤ लाहौर में भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद
और राजगुरु ने 17
दिसंबर,
1928 को ब्रिटिश पुलिस अधिकारी स्कॉट के धोखे में सांडर्स और उसके रीडर चटनसिंह को
गोलियों से भून दिया। अगले दिन लाहौर की दीवारों पर चिपके एक इश्तिहार में लिखा था
"हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन ने लाला लाजपतराय की हत्या का
प्रतिशोध ले लिया है।" सांडर्स हत्याकांड से ब्रितानी सत्ता काँप उठी।
➤ सांडर्स की हत्या के बाद क्रांतिकारी आंदोलन के नायक
राजगुरू, चंद्रशेखर
आजाद और भगतसिंह वीरांगना दुर्गा भाभी के साथ कलकत्ता मेल से नया इतिहास बनाने लाहौर
से कलकत्ता पहुँच गये।
➤ अपने बदले हुए राजनीतिक उद्देश्य तथा जनक्रांति के लिए
क्रांतिकारियों ने सेंट्रल असेंबली में बम फेंकने की योजना बनाई, ताकि अदालत को
मंच के रूप में प्रयुक्त किया जा सके। इस कार्य के लिए पहले बटुकेश्वर दत्त और
विजयकुमार सिन्हा को चुना गया था,
किंतु बाद में भगतसिंह ने यह कार्य बटुकेश्वर दत्त के साथ स्वयं करने का फैसला
लिया।
असेंबली बम विस्फोट कब हुआ था और किसने किया था?
असेंबली बम विस्फोट
➤ सेंट्रल असेंबली बमकांड की घटना 8 अप्रैल, 1929 को
घटी। सरकार दिल्ली की केंद्रीय असेंबली में पब्लिक सेफ्टी बिल (जन सुरक्षा बिल) और
ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल (औद्योगिक विवाद बिल) लाने की तैयारी कर रही थी।
➤ इन बिलों
का प्रयोग देश में उठते युवा आंदोलन को कुचलने और मजदूरों को हड़ताल के अधिकार से
वंचित रखने के लिए किया जाना था। यद्यपि असेंबली के बहुत से सदस्य इन दमनकारी
कानूनों के विरुद्ध थे,
फिर भी,
वायसरॉय इन्हें अपने विशेषाधिकार से पास कराना चाहता था।
➤ निश्चित कार्यक्रम के अनुसार जब वायसरॉय इन दमनकारी प्रस्तावों को कानून बनाने की घोषणा करने के लिए उठा, बटुकेश्वर दत्त और भगतसिंह भी खड़े हो गये। जैसे ही बिल संबंधी घोषणा की गई, पहला बम भगतसिंह ने और दूसरा बम दत्त ने फेंका और इंकलाब जिंदाबाद का नारा लगाया। एकदम खलबली मच गई, जॉर्ज शुस्टर अपनी मेज के नीचे छिप गया। मार्जेंट टेटी इतना भयभीत हो गया कि वह इन दोनों को गिरफ्तार नहीं कर सका।
➤ बम से किसी को कोई नुकसान नहीं पहुँचा, क्योंकि उसे
जानबूझकर ऐसा बनाया गया था कि किसी को चोट न आये। वैसे भी बमअसेंबली में खाली
स्थान पर ही फेंका गया था और इसके फेंकने का उद्देश्य किसी की हत्या करना नहीं, बल्कि
क्रांतिकारियों के एक पर्चे के अनुसार बहरों को सुनाना था।
➤ भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त चाहते तो बम फेंकने के बाद आसानी
से भाग सकते थे,
किंतु उन्होंने जान-बूझकर अपने को गिरफ्तार कर लिया क्योंकि वे क्रांतिकारी
प्रचार के लिए अदालत का एक मंच के रूप में उपयोग करना चाहते थे।
सरकार की प्रतिक्रिया
➤ सरकार ने क्रांतिकारियों पर तीखा प्रहार किया। राजगुरू, भगतसिंह और
बटुकेश्वर दत्त के साथ प्रजातांत्रिक संघ के अनेक सदस्य गिरफ्तार किये गये और उन
पर मुकदमें चलाये गये।
भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त को असेंबली बमकांड के आधार पर
फाँसी नहीं दी जा सकती थी,
इसलिए सांडर्स की हत्या का मुकदमा भी असेंबली बमकांड से जोड़ दिया गया।
शहीद भगत सिंह ने जेल में ऐतिहासिक भूख-हड़ताल कब की थी?
ऐतिहासिक भूख-हड़ताल
➤ जेलों की अमानवीय परिस्थितियों के विरोध में उनकी भूख
हड़ताले विशेष प्रेरणाप्रद थीं। राजनीतिक बंदियों के रूप में उन्होंने जेलों में
अपने साथ सम्मानित तथा सुसंस्कृत व्यवहार किये जाने की माँग की। इसी प्रकार की एक
भूख हड़ताल में 63 दिनों
की ऐतिहासिक भूख हड़ताल के बाद एक युवा क्रांतिकारी जतीनदास ( यतींद्रनाथ दास)
शहीद हो गये।
➤ देशव्यापी विरोध के बावजूद अदालत ने वही फैसला दिया, जिसकी उम्मीद
थी। 7
अक्टूबर,
1930 को अदालत का फैसला जेल में पहुँचा, जिसमें भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु को मृत्युदंड, कमलनाथ तिवारी, विजयकुमार
सिन्हा, जयदेव
कपूर, शिववर्मा, गयाप्रसाद
कटियार, किशोरलाल
और महावीरसिंह को आजीवन कारावास,
कुंदनलाल को सात वर्ष तथा प्रेमदत्त को तीन वर्ष के कठोर कारावास की सजा दी गई
थी।
भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु को फाँसी की सजा कब हुयी थी?
भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु को फाँसी
➤ क्रांतिकारियों को फाँसी की सजा सुनाये जाने के साथ ही
लाहौर में धारा 144 लगा
दी गई। पूरे देश में उत्तेजना फैल गई। 17 फरवरी,
1931 को भगतसिंह दिवस मनाया गया। कहा जाता है कि मृत्युदंड के लिए 24 मार्च, 1931 की
सुबह तय थी,
किंतु जनाक्रोश से डरी-सहमी सरकार ने 23-24 मार्च की
रात्रि में ही भगतसिंह,
सुखदेव और शिवराम राजगुरु को फाँसी पर लटका दिया और रात के अंधेरे में ही सतलज
नदी के किनारे फिरोजपुर में उनका अंतिम संस्कार भी कर दिया।
➤ फाँसी के कुछ दिन पहले जेल सुपरिटेंडेंट को लिखे गये एक
पत्र में इन तीनों क्रांतिकारियों ने कहा था- "बहुत जल्द ही अंतिम संघर्ष की दुंदुभि
बजेगी। इसका परिणाम निर्णायक होगा। हमने इस संघर्ष में भाग लिया है और हमें इस पर
गर्व है।"
➤ देश भर में भगतसिंह की शहादत को याद किया गया। भगतसिंह की
मृत्यु की खबर को लाहौर के दैनिक समाचारपत्र 'पयाम' ने लिखा: अंग्रेजों तुमने भगतसिंह, राजगुरु और
सुखदेव को मार कर अपने ही भविष्य में छुरा घोंपा है। हे शहीदों तुम जिंदा हो और
हमेशा जिंदा रहोगे।"
➤ सुभाषचंद्र बोस ने कहा कि "भगतसिंह जिंदाबाद और इंकलाब
जिंदाबाद का एक ही अर्थ है।"
➤ गांधीजी ने भी स्वीकार किया था कि हमारे मस्तक भगतसिंह की
देशभक्ति, साहस
और भारतीय जनता के प्रति प्रेम तथा बलिदान के आगे झुक जाते हैं।
क्रांतिकारी आंदोलन में शहीद चन्द्रशेखर आजाद का क्या योगदान था?
शहीद चन्द्रशेखर आजाद
➤ 1919 में हुए अमृतसर के जलियांवाला बाग नरसंहार ने देश के
नवयुवकों को उद्वेलित कर दिया। चन्द्रशेखर उस समय पढाई कर रहे थे। जब गांधीजी ने
सन् 1920 में असहयोग आन्दोलनका फरमान जारी किया तो वह आग ज्वालामुखी बनकर फट पड़ी
और तमाम अन्य छात्रों की भाँति चन्द्रशेखर भी सडकों पर उतर आये। अपने विद्यालय के
छात्रों के जत्थे के साथ इस आन्दोलन में भाग लेने पर वे पहली बार गिरफ़्तार हुए और
उन्हें 15 बेतों की सज़ा मिली।
झांसी का गुप्त ट्रेनिंग सेंटर
➤ झांसी से पंद्रह किलोमीटर दूर ओरछा के जंगलों में वह अपने
साथियों के साथ पंडित हरिशंकर ब्रह्मचारी के छ्द्म नाम से छिप कर निशानेबाजी का अभ्यास
किया करते थे। अचूक निशानेबाज होने के कारण चंद्रशेखर आजाद दूसरे क्रांतिकारियों
को प्रशिक्षण देते थे। इसके साथ-साथ बच्चों के अध्यापन का कार्य भी करते थे। वह धिमारपुर
गाँव में अपने छद्म नाम हरिशंकर ब्रह्मचारी से स्थानीय लोगों के बीच बहुत लोकप्रिय
हो गए थे। झांसी में रहते हुए चंद्रशेखर आजाद ने कार चलानी भी सीख ली थी।
➤ 1922 में चौरी चौरा की घटना के पश्चात् बिना किसी से पूछे (गाँधीजी) ने आन्दोलन वापस ले लिया तो आज़ाद का भी कांग्रेस से मोह भंग हो गया और हिन्दुस्तानी प्रजातान्त्रिक संघ (एच० आर० ए०) में शामिल हो गए जिसका गठन पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल, शचीन्द्रनाथ सान्याल योगेशचन्द्र चटर्जी ने 1924 में किया था।
नारी के प्रति आदर भाव और उसूलवादी व्यक्तित्व
➤ इस संगठन ने जब गाँव के अमीर घरों में डकैतियाँ डालीं, ताकि क्रांतिकारी
दल के लिए धन जुटाने की व्यवस्था हो सके और तय किया गया कि किसी भी औरत के ऊपर हाथ
नहीं उठाया जाएगा।
➤ एक गाँव
में राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में डाली गई डकैती में जब एक औरत ने आज़ाद का
पिस्तौल छीन लिया तो अपने बलशाली शरीर के बावजूद आज़ाद ने अपने उसूलों के कारण उस
पर हाथ नहीं उठाया। इस डकैती में क्रान्तिकारी दल के आठ सदस्यों पर, जिसमें आज़ाद
और बिस्मिल भी शामिल थे,
पूरे गाँव ने हमला कर दिया। बिस्मिल ने मकान के अन्दर घुसकर उस औरत के कसकर
चाँटा मारा,
पिस्तौल वापस छीनी और आजाद को डाँटते हुए खींचकर बाहर लाये। इसके बाद दल ने
केवल सरकारी प्रतिष्ठानों को ही लूटने का फैसला किया।
➤ 9 अगस्त 1925 को काकोरी काण्ड को जब अंजाम दिया गया।तो सबसे पहले
शाहजहाँपुर में इस योजना के बारे में चर्चा करने के लिये मीटिंग बुलायी गयी तो दल
के एक मात्र सदस्य अशफाक उल्ला खाँ ने इसका विरोध किया था। और कहा इससे प्रशासन
उनके दल को जड़ से नष्ट कर देगा और ऐसा ही हुआ ।
➤ अंग्रेज़ चन्द्रशेखर आज़ाद को तो पकड़
नहीं सके पर अन्य सर्वोच्च कार्यकर्ताओँ - पण्डित राम प्रसाद 'बिस्मिल', अशफाक उल्ला
खाँ एवं ठाकुररोशन सिंह को 19 दिसम्बर 1927 को फाँसी पर लटकाकर मार दिया गया।
➤ चन्द्रशेखर आज़ाद ने साण्डर्स-वध और दिल्ली एसेम्बली बम
काण्ड में फाँसी की सजा पाये तीनों क्रान्तिकारियों - भगत सिंह, राजगुरु व
सुखदेव की सजा कम कराने का काफी प्रयास
किया। वे उत्तर प्रदेश की हरदोई जेल में जाकर गणेशशंकर विद्यार्थी से मिले।
विद्यार्थी से परामर्श कर वे इलाहाबाद गये और 20 फरवरी को जवाहरलाल नेहरू से उनके
निवास आनन्द भवन में भेंट की। आजाद ने पण्डित नेहरू से यह आग्रह किया कि वे गांधी
जी पर लॉर्ड इरविन से इन तीनों की फाँसी को उम्र- कैद में बदलवाने के लिये जोर
डालें।
बलिदान
➤ इलाहाबाद में 27 फ़रवरी 1931 के दिन चन्द्रशेखर आज़ाद अल्फ्रेड पार्क में अपने मित्र सुखदेव राज से मन्त्रणा कर ही रहे थे तभी सी०आई०डी० का एस०एस०पी० नॉट बाबर जीप से वहाँ आ पहुँचा। उसके पीछे-पीछे भारी संख्या में कर्नलगंज थाने से पुलिस भी आ गयी। दोनों ओर से हुई भयंकर गोलीबारी में आजाद ने तीन पुलिस कर्मियों को मौत के घाट उतार दिया और कई अंग्रेज़ सैनिक घायल हो गए। अंत में जब उनकी बंदूक में एक ही गोली बची तो वो गोली उन्होंने खुद को मार ली और वीरगति को प्राप्त हो गए।
जैसे ही आजाद की बलिदान की खबर जनता को लगी सारा प्रयागराज अलफ्रेड पार्क में उमड पडा। जिस वृक्ष के नीचे आजाद शहीद हुए थे लोग उस वृक्ष की पूजा करने लगे।