ब्रिटिश कालीन भारतीय अर्थव्यवस्था से जुड़ी कुछ प्रथायें
दादनी प्रथा- इसके अंतर्गत अंग्रेज व्यापारी भारतीय श्रमिकों शिल्पियों को रुपये अग्रिम संविदा (Advance) के रूप में देते थे।
कमियौटी प्रथा- बिहार एवं उड़ीसा में प्रचलित इस प्रथा में कमियां जाति के कृषि दास मालिक से प्राप्त ऋण पर दी जाने वाला ब्याज की राशि के बदले जीवन पर कार्य करते थे।
तीन कठिया प्रथा- चंपारन (बिहार) क्षेत्र में प्रचलित इस प्रथा में कृषकों को अंग्रेज बागान मालिकों के अनुबंध के अनुसार भूमि के 3/20 भाग पर नील की खेती करना आवश्यक था।
दुबला हाली प्रथा- भारत के पश्चिमी क्षेत्र मुख्यतः सूरत (गुजरात) क्षेत्र में प्रचलित इस प्रथा के अंतर्गत दुबला हाली भूदास अपनी संपत्ति का और स्वयं का संरक्षक अपने मालिकों को ही मानते थे।
गिरमिटिया प्रथा- 19वीं शताब्दी के तीसरे दशक में शुरू की गई इस प्रथा में भारतीय श्रमिकों को एक समझौते के अंतर्गत 5 या 7 वर्ष के लिये विदेशों में मजदूरी करनी होती थी। इस समझौते को गिरमिट तथा इस प्रथा को गिरमिटया प्रथा कहा जाता था।
महत्वपूर्ण बिन्दु
👉अंग्रेजों ने 1813 के बाद से एकतरफा मुक्त व्यापार (Free Trade) की नीति अपनाई।
👉मुक्त व्यापार तथा रेलवे के विकास से सूत कातने तथा सूती कपड़ा बुनने के उद्योगों को सबसे अधिक धक्का लगा।
👉1820 के उपरांत यूरोपीय बाजारों के दरवाजे भारतीय निर्यातों (Exports) के लिए वस्तुतः बंद हो गए।
👉ब्रिटिश नीतियों के परिणामस्वरूप मध्यकाल के जमींदार (जो महज लगान वसूलने के लिए उत्तरदायी थे) अब उस जमीन के मालिक बन गए।
👉ब्रिटिश आर्थिक नीतियों के फलस्वरूप भूमि का वाणिज्यीकरण (Commercialisation) हुआ। भूमि अब वस्तु (Commodity) की तरह खरीदी-बेची या गिरवी रखी जा सकती थी।
👉मर्टिनस बर्ड (Merttins Bird) को उत्तरी भारत में भूमि का व्यवस्था का प्रवर्तक (Father of land-Settlements is Northern India) के नाम से स्मरण किया जाता है।
रैयतवारी व्यवस्था (Ryotware System)
यह भू-राजस्व उगाहने की एक व्यवस्था थी, जिसके तहत रैयत (किसान) अपना लगान सीधे सरकार को देता था। इस व्यवस्था के तहत किसान और अंग्रेजी सरकार के बीच जमींदार, ताल्लुकदार जैसा कोई बिचौलिया नहीं होता था। ब्रिटिश भूमि का लगभग 51 प्रतिशत हिस्सा इस व्यवस्था के तहत शामिल था, (मुख्यतः बम्बई, मद्रास तथा असम में)।
महलवारी व्यवस्था (Mahalwari System)
इस व्यवस्था के तहत गांव की बिरादरी अपने प्रतिनिधियों (मुखिया आदि) के माध्यम से रकम चुकाने का भार अपने ऊपर लेती थी। फिर सारी देनदारी आपस में बाँट कर प्रत्येक व्यक्ति अपने लिए निर्धारित रकम चुकाता था, पर अंततः वह अपने साथियों के अंश के लिए और वे सब उसके अंश के लिए उत्तरदायी होते थे। यह व्यवस्था (उ.प्र., मध्यप्रांत, पंजाब में अर्थात् भारत के कुल 30% भूमि पर लागू थी)।
नील दर्पण
यह दीनबंधु मित्र द्वारा 1860 में लिखित नाटक था, जिसमें नील की खेती करने वाले कृषकों की दयनीय दशा का वर्णन था। नील से रंग बनाने का उद्योग भारत में 18वीं सदी के अंत में शुरू किया गया था।
स्थायी बंदोबस्त (Permanent Settlement)
यह व्यवस्था लार्ड कार्नवालिस ने सर जॉन शोर के सुझावों पर 1793 में लागू की। इसके तहत लगान की एक निश्चित मात्रा, जो जमींदारों द्वारा देय थी, हमेशा के लिए निर्धारित कर दी गई। जमींदार अपनी सेवाओं के लिए एक हिस्सा (1/11) अपने पास रखता था। यह व्यवस्था बंगाल, बिहार, उड़ीसा तथा बनारस के क्षेत्रों एवं कर्नाटक (19%) पर लागू थी।