दिल्ली के शासक
राजपूत वंश-
तोमर- आरम्भिक बारहवीं सताब्दी -1165
अनंगपाल - 1130-1145
चौहान- 1165-1192
पृथ्वीराज चौहान- 1175-1192
प्रारंभिक तुर्की शासक
कुतुबुद्दीन ऐबक - 1206-1210
शमसुद्दीन इल्तुतमिश - 1210-1236
रजिया - 1236-1240
गयासुद्दीन- 1266-1287
खिलजी वंश-1290-1320
जलालुद्दीन खलजी- 1290-1296
अलाउद्दीन खलजी- 1296-1316
तुगलक वंश-1320-1414
गयासुद्दीन तुगलक-1320-1324
मुहम्मद तुगलक - 1324-1351
फिरोज शाह तुगलक - 1351-1388
सैयद वंश -1414-1451
खिज्र खान- 1414-1421
लोदी वंश -1451-1526
बहलोल लोदी - 1451-1489
सल्तनत काल से संबन्धित महत्वपूर्ण बिन्दु
👉बारहवीं सताब्दी में दिल्ली एक महत्वपूर्ण
शहर बना।
👉बारहवीं सताब्दी के मध्य में तोमरों को
अजमेर के चौहानों ने परास्त किया।
👉इसीकाल में दिल्ली एक प्रमुख वाणिज्यिक
केंद्र बानी।
👉जैन व्यापारियों ने दिल्ली में अनेक मंदिर
बनवाएं।
👉यहाँ देहलीवाल कहे जाने वाले सिक्के भी ढाले
जाते थे जो काफी प्रचलन में थे।
👉तेरहवीं सदी के आरम्भ में दिल्ली सल्तनत की
स्थापन हुई, जहाँ देहली-ए-कुहना, सीरी और जहाँपनाह आदि कई नगर बसे।
👉इतिहास में तारीख ( एकवचन) तवारीख ( बहुवचन)
है जो सुल्तानों के शासनकाल में प्रशासन की भाषा फारसी में लिखे गए थे।
👉तवारीख के लेखक सचिव,
प्रशासक, कवि और दरबारी जैसे सुशिक्षित
व्यक्ति थे। जो घटनाओं का वर्णन भी करते थे व शासन सम्बन्धी सलाह भी देते थे।
👉सन 1236 में इल्तुतमिश की बेटी रजिया सुल्तान सिंहासन पर बैठी। उसे युग के इतिहासकार मिन्हाज-एसिराज ने स्वीकार किया परन्तु दरबारीजन प्रसन्न नहीं थे अंततः 1240 में उसे सिंहासन से हटा दिया गया।
👉आंध्रप्रदेश के वारंगल क्षेत्र में काकतीय
वंश की रानी रुद्रम्मा देवी ( 1262-1289) ने अपने
अभिलेखों में अपना नाम पुरुषों जैसा लिखवाकर अपने पुरुष होने का भ्रम पैदा किया
था।
👉कश्मीर की रानी दिद्दा ( 980-1003)
को प्रजा स्नेह भरी सम्बोधन दीदी के नाम से किए जिसकी वजह से उन्हें
रानी दिद्दा कहा गया।
👉तेरहवीं शताब्दी के आरम्भिक वर्षों में
सुल्तानों ने अपना शासन गैरिसन ( रक्षक सैनिकों की टुकड़ी) से किया।
👉गैरिसानों का विस्तार गयासुद्दीन बलबन,
अलाउद्दीन खलजी और मुहम्मद तुगलक के राज्य काल में हुआ।
👉गैरिसन पर इनका नियंत्रण था परन्तु भीतरी
शहरों पर उनका नियंत्रण न के बराबर था और इसलिए उन्हें आवश्यक सामग्री,रसद आदि के लिए व्यापर कर या लटमार पर ही निर्भर रहना पड़ता था।
👉गैरिसन शहर - किलेबंद बसाव जहाँ सैनिक रहते
है।
👉भीतरी प्रदेश - किसी शहर या बंदरगाह के
आस-पास के इलाके जो उस शहर के लिए वस्तुओ और सेवाओं की पूर्ति करें।
👉दिल्ली सुदूर बंगाल और सिंध के गैरिसन शहरों
का नियंत्रण बहुत ही कठिन था।
👉सल्तनत के भीतरी सीमाओं के अभियानों का
लक्ष्य गैरिसन शहरों और भीतरी क्षेत्रों की स्थिति को मजबूत करना था।
👉सल्तनत की बाहरी सीमा का विस्तार अलाउद्दीन खिलजी
के शासनकाल में दक्षिण भारत को लक्ष्य करके सैनिक अभियान करके शुरू हुए और मुहम्मद
तुगलक के समय में ये अपनी चरम सीमा पर पहुंच गए।
👉दिल्ली के आरम्भिक सुल्तान विशेष कर
इल्तुतमिश ने सामंतो और जमींदारों के स्थान पर अपने गुलामों ( फारसी में बंदगाँ)
को राजनीतिक पदों पर रखा।
👉गुलामों को सूबेदार और सेनापति बनाया जाता
था। परन्तु वे अपने मालिकों के प्रति वफादार होते थे लेकिन उनके उत्तराधिकारो के
प्रति नहीं इससे राजनीतिक अस्थिरिता पैदा जो जाती थी।
👉सुल्तानों द्वारा निचले तपके को संरक्षण
किया जाता था जिसकी आलोचना फारसी तवारीख के लेखों में की गई।
👉सुल्तान मुहम्मद तुगलक ने अजीज खुम्मार
नामक कलाल ( शराब बनाने वाला या बेचने वाला), फिरोज
हज्जाम नामक नाई,मनका तब्बाख नामक बावर्ची, लड्ढ़ा तथा पीर नामक मालियों को ऊँचे प्रशासनिक पदों पर बैठाया था।
👉इक्ता -विभिन्न इलाके जहाँ से राजस्व वसूला
जाता था।
👉मुक्ति - राजस्व वसूलने वाले इक्तेदार या
सूबेदार । मुक्ति लोगो द्वारा एकत्रित किये गए राजस्व की रकम का हिसाब लेने के लिए
राज्य द्वारा लेखा अधिकारी नियुक्त किये गए थे।
👉अल्लुद्दीन खलजी के शासनकाल में भी-राजस्व
के निर्धारण और वसूली के कार्य को राज्य ने अपने नियंत्रण में ले लिया।
👉अफ्रीकी देश मोरक्को का यात्री इब्न बत्तूता चौदहवीं सदी में भारत आया था।
👉तुगलकवंश के बाद 1526 तक दिल्ली तथा आगरा पर सैय्यद तथा लोदी वंश का राज्य रहा।
👉शेरशाह सूरी ( 1540-1545) ने बिहार में अपने चाचा के एक छोटे से इलाके से प्रबंधन के रूप में आगे चलकर उसने मुग़ल सम्राट ( 1530-1540 , 1555-1556 ) तक को चुनौती दी और परास्त किया।
👉सूरी वंश ने केवल 15 वर्ष ( 1540-1555) तक शासन किया।
👉अकबर ने (1556-1605) अपने प्रतिमान के रूप में शेरशाह की प्रशासन को ही अपनाया था।
👉तीन श्रेणियों का विचार सबसे पहले ग्यारहवीं सताब्दी में फ्रांस में सूत्र बद्ध किया गया। इसके अनुसार समाज की तीन वर्गों में विभाजित किया गया – प्रार्थना करने वाला वर्ग, युद्ध करने वाला गर्ग और खेती करने वाला वर्ग।
👉नाइट- योद्धाओं का समूह ( धर्म और ईश्वर की सेवा में समर्पित)
👉ईस्वरीय शांति -ईसाई धर्म का प्रसार करने वालों का समूह।
👉धर्मयुद्ध - मुसलमानो के कब्जे से यरुसलम शहर को छुड़ाने के लिए सैनिक अभियानों की एक श्रृंखला चली ,जिसे क्रूसेड (धर्मयुद्ध) कहा गया।
👉मंगोल आक्रमण - चंगेज खान के नेतृत्व में मंगोलों ने 1219 में उत्तर-पूर्वी ईरान में ट्रांसऑक्सीसीयाना (आधुनिक उजबेकिस्तान) पर हमला किया था और इसके शीघ्र बाद ही दिल्ली सल्तनत पर धावा बोल दिया था।
सल्तनत काल
उत्तर भारत में तुर्क राज्य की स्थापना के साथ ही भारतीय समाज में मुसलमानों के रूप में एक ऐसा तत्त्व आ गया जिसे हिन्दू समाज कालान्तर में भी आत्मसात् न कर सका। धर्म नीति, विधि-विधान, खान-पान आदि अनेक दिशाओं में विजित ओर विजेताओं में इतना अन्तर था कि मुगल सम्राट अकबर के शासनकाल तक समवन्यकारी शक्तियाँ इस अन्तर को मिटाने में बहुत कम सफल हो सकी।
मुस्लिम समाज
इस समय मुस्लिम समाज चार भागों में विभक्त था - शासक वर्ग, मध्यम वर्ग उलेमा वर्ग तथा जन साधारण ।
शासक वर्ग
यह समाज का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण वर्ग था। यह शासन का संचालन करता था। शासन का सर्वोच्च पदाधिकारी सुल्तान होता था, जिसके हाथ में शासन की समस्त शक्तियां निहित थी। इस काल में सुल्तान मात्र औपचारिक रूप से खलीफा का प्रतिनिधि माना जाता था। व्यवहारतः वह निरंकुश एवं सर्वोच्च शासक था।
अमीर
इनका मुस्लिम समाज में दूसरा स्थान था। ये
चार भागों में विभक्त थे-
खान,
मलिक
अमीर एवं
सिपहसालार
सुल्तान की शक्ति अमीरों के समर्थन पर निर्भर करती थी। ये सुल्तान की शक्ति पर एक प्रकार से नियन्त्रण का काम करते थे। वस्तुतः ये मुगल शासन के आधार स्तम्भ थे
उलेमा
इन्हें न्याय धर्म एवं शिक्षा से सम्बन्धित
उच्च पदों पर नियुक्त किया जाता था। 'कुरान में
उलेमा का स्थान साधारण रूप में मुसलमानों से पृथक् माना गया है, जो लोगों को उचित मार्गदर्शन कराते हैं।" ये इस्लाम का प्रचार,
धार्मिक कार्य तथा शिक्षण संस्थाओं में अध्यापन का कार्य करते थे।
ये कुरान, हदीस, फिक्र आदि में पारंगत
होते थे।
मध्यम वर्ग
इसकी स्थिति शासक वर्ग एवं जनसाधारण के बीच
की होती थी। इन्हें पर्याप्त सम्मान प्राप्त था। इस वर्ग में व्यापारी आते थे,
'गुजरात के व्यापारी भारत के समस्त समुद्र तट पर व्यापार करते थे,
जो पूंजीपति व्यापारी थे।'
जनसाधारण
इसमें किसान, मजदूर, कारीगर, दुकानदार आदि शामिल थे। इसमें हिन्दू धर्म को छोड़कर मुसलमान धर्म स्वीकार करने वाले लोग आते थे। विजेता मुसलमानों ने इन भारतीय मुसलमानों को सदैव घृणा की दृष्टि से देखा। ' इस काल में जनसाधारण की स्थिति काफी दयनीय थी तथा उसका बहुत अधिक शोषण किया जाता था।
हिन्दू समाज
जातिप्रथा की जटिलता
प्राचीनकाल में हिन्दु समाज वर्ण-व्यवस्था और वर्णाश्रम धर्म पर टिका हुआ था। हिन्दुओं के समाज का प्रमुख आधार जातिप्रथा था। इस काल में मुसलमानों को जिस प्रकार तुर्की रक्त को जाति के आधार पर श्रेष्ठ समझा जाता था उसी प्रकार की जाति व्यवस्था हिन्दुओं में भी संकीर्ण होती गयी। मध्यकाल में जाति-व्यवस्था प्रायः उस रूप में आ गई जो आजकल दिखाई पड़ती है। वंश परंपरा के अनुसार हिन्दुओं का व्यवसाय स्थिर होने लगा। खान-पान, धार्मिक विश्वास, भौगोलिक स्थिति, विवाह संस्कार आदि में विभिन्नता के कारण एक वर्ग के भीतर ही अनेक वर्ग बनने लगे। वर्ण संकरों की नई जातियाँ बनीं।
हिन्दुओं की स्थिति
👉देश की बहुसंख्यक जनता हिन्दू थी।
👉सल्तनत युग में अधिकांश भूमि पर इन्हीं का
अधिकार था। उनमें से बहुत अधिक समृद्धशाली भी थे। इनकी दशा कुछ काल तक अच्छी रही,
परन्तु अलाउद्दीन के काल में इनकी स्थिति दयनीय हो गयी। सल्तनत का
राज्य लगभग साढ़े तीन सौ वर्षों तक स्थापित रहा।
👉इस काल में विजय तथा दमन की प्रक्रिया हुई।
परिणामस्वरूप लाखों हिन्दू मारे गये और उनकी स्त्रियों तथा बच्चों को गुलाम बनाकर
बेच दिया गया।
👉इस युग में राजनीतिक तथा सामाजिक दृष्टि से
हिन्दू जनता को काफी कष्ट हुआ।
👉हिन्दुओं को शासन के महत्वपूर्ण पदों से
वंचित नहीं किया गया वरन् उनके साथ घृणापूर्ण दुर्व्यवहार भी किया गया।
👉हिन्दुओं ने अपनी नारी जाति के सम्मान की
रक्षा के लिए हिन्दुओ ने बाल विवाह जैसी कुप्रथा को अपना लिया।
👉हिन्दुओं को धार्मिक स्वतंत्रता नहीं थी। इस
काल में बड़ी संख्या में अनेक मंदिरों एवं मूर्तियों को नष्ट-अष्ट किया गया और
उनके धार्मिक अनुष्ठानों पर तरह तरह के प्रतिबंध लगाये गये।
👉हिन्दुओं को जजिया और तीर्थ यात्रा कर देना
पड़ता था।
👉एक जाति के रूप में हिन्दुओं का काफी पतन हुआ।
जाति व्यवस्था
👉मध्यकाल में भी जाति व्यवस्था विद्यमान थी।
इस काल में मुसलमानों में भी जाति भेद विद्यमान थे।
👉तुर्क मुसलमान भारतीय मुसलमानों से घृणा करते थे तथा उन्हें उच्च पदों पर नियुक्त नहीं करते थे।
👉सुन्नी लोग शिया मत बालों से घृणा करते थे।
👉हिन्दू समाज में चारों वर्गों के अलावा अनेक जातियों व उपजातियों का विकास हो रहा था।
👉ब्राह्मणों व क्षत्रियों को समाज में श्रेष्ठ स्थान प्राप्त था। वैश्यों की स्थिति भी अच्छी थी।
👉शूद्रों की स्थिति काफी दयनीय थी। अतः इस्लाम धर्म प्रचारकों ने उन्हें इस्लाम स्वीकार करने के लिए प्रोत्साहित किया।
भोजन
हिन्दू एवं मुसलमान दोनों ही वर्गों के साधारण स्थिति वाले मनुष्यों में इतनी क्षमता नहीं थी कि वे उत्तम प्रकार का भोजन कर सकें अतः वे साधारण भोजन पर ही अपना जीवन निर्वाह करते थे। खिचड़ी इस वर्ग का मुख्य भोजन था। हिन्दु प्रायः निरामिष होते थे। मुस्लिम परिवारों में सामान्य रूप से गोश्त का प्रचलन था। मैण्डल्सों ने मुसलमानों के भोजन के विषय में लिखा है, वे स्वतन्त्रतापूर्वक गाय तथा बछड़े का मांस, मछली, शिकार की जाने वाली चिड़या तथा भेड़-बकरी का मांस खाते थे। इस मांस को स्वादिष्ट बनाने के लिए विभिन्न प्रकार के मसालों का प्रयोग करते थे।
मादक द्रव
अलाउद्दीन खिलजी ही एक मात्र ऐसा शासक था जिसने मद्यपान का विरोध किया था। मुसलमानों में कोई भी वर्ग ऐसा नहीं था जो मदिरा का सेवन न करता हो। स्त्रियां, शिक्षक, धार्मिक पुरुष गुप्त रूप से इसका सेवन करते थे तथा सिपाही एवं सैन्य अधिकारी प्रत्यक्ष रूप से मद्यपान करते थे।
वस्त्र
सल्तनत काल में विभिन्न वर्गों के लोग भिन्न-भिन्न प्रकार की पोशाक पहनते थे। साधारण मुसलमान व धनी मसलमानों की पोशाक में कोई विशेष अन्तर नहीं
श्रृंगार
सल्तनत काल में स्त्री तथा पुरुष दोनों ही श्रृंगार प्रेमी थे। स्त्रियां नेत्रों में काजल, मांग में सिन्दूर तथा हाथों में मेंहदी लगाती थी। शीश, नाक, कान, भुजा, अंगुली, कटि, आदि में तरह-तरह के आभूषण धारण किये जाते थे।
मनोरंजन
चौगान इस युग के कुलीन परिवारों का मुख्य एवं प्रिय खेल था। आधुनिक युग में इसे पोलो कहा जाता है। जिसका अध्यक्ष 'अमीर-ए-शिकार कहलाता था। इस विभाग का उत्तरदायित्व किसी अमीर या योग्य व्यक्ति को सौंपा जाता था। शाही बाज तथा अन्य शिकारी पशु-पक्षियों की रक्षा के लिए आरिजन-एशिकार', खस्सारदन', 'हिमतरन, आदि अन्य अधिकारियों की भी नियुक्ति की जाती थी। विभिन्न प्रकार के पशु-पक्षी भारी संख्या में एकत्रित किये जाते थे। दिल्ली के निकट ही चार वर्ग मील के क्षेत्र में 'शाही शिकारगाह थी। हिरन, नीलगाय तथा जंगली सूअरों का विशष रूप से शिकार किया जाता था।
दास प्रथा
मध्यकाल में हिन्दू एवं मुसलमान दोनो को ही
दास रखने का बड़ा शौक था। हाट में दासों को पशुओं के समान बेचा जाता था। हिन्दू
धर्मग्रन्थों में 15 प्रकार के दासों का वर्णन
मिलता है तथा इनके साथ सव्यवहार होता था। मुस्लिम समाज में गृह कार्य का दायित्व
दासों पर डाल दिया गया था। मुस्लिम समाज में चार तरह के दास थे-
1. खरीदा हुआ,
2. दान व उपहार में प्राप्त,
3. युद्ध बन्दी व
4. आत्मविक्रेता दास
'भारत में तुर्कों की सफलता का प्रमुख कारण उनकी विशिष्ट दास प्रथा थी। ईश्वरीप्रसाद के अनुसार पूर्वी मुसलमानी प्रदेशों में किसी राजा अथवा सेनापति का दास होना बड़े गौरव की बात समझी जाती थी।
स्त्रियों की स्थिति
सल्तनकाल में स्त्रियों की स्थिति निम्न बिन्दुओं में दर्शायी जा सकती है -
परिवार में नारी का स्थान
👉सल्तनकाल में स्त्रियों की दशा पुरुषों की
अपेक्षा निम्न थी किन्तु फिर भी हिन्दू समाज में स्त्रियों का सम्मान था।
👉स्त्री को गृहस्वामिनी के रूप में देखा जाता
था।
👉धार्मिक कार्यों में स्त्री की उपस्थिति
अनिवार्य थी।
👉पुत्रवती स्त्रियों का अत्यधिक सम्मान था।
👉पति की सेवा एवं घर के कार्यों को करना
स्त्री के कर्तव्य थे।
👉स्त्रियों को पूर्ण स्वतन्त्रता नहीं थी, बचपन में वह माता-पिता, युवावस्था में पति एवं
वृद्धावस्था में पुत्रों के अधीन रहती थी।
👉हिन्दुओं में अधिकतर एक ही विवाह का प्रचलन
था।
👉हिन्दुओं में विधवा विवाह का प्रचलन नहीं था
👉विधवा या तो पति के शव के साथ सती हो जाती थी या फिर पवित्रता का जीवन व्यतीत करती थी।
मुस्लिम परिवारों में स्त्री की दशा
मुस्लिम स्त्रियों की स्थिति निम्न बिन्दुओं
में दर्शायी जा सकती है -
👉मुस्लिम परिवारों में स्त्री की दशा अत्यन्त
खराब कही जा सकती है।
👉मुसलमानों में बहु-विवाह की प्रथा के कारण
सहपत्नियों में गृह-कलह रहता था।
👉पारिवारिक जीवन कष्टकारी था।
👉मुसलमान स्त्रियां पूर्णतः पति पर आश्रित
थी।
👉किसी से बात भी नहीं करने की अनुमति नहीं थी।
👉पति को, पत्नी को
तलाक देने का पूर्ण अधिकार था।
👉विवाह उच्च वर्ग के मुसलमानों में बहु-विवाह
का प्रचलन था। वे प्रायः तीन या चार पत्नियां रखते थे। कुरान के अनुसार एक मुसलमान
चार पत्नियों का अधिकारी होता है।
👉मुसलमान निकाह के द्वारा 4 विवाह तथा मुताह के द्वारा अनेक विवाह कर सकता था।
सती प्रथा
हिन्दुओं में सती प्रथा का प्रचलन था।
हिन्दुओं के उच्च वर्ग में सती प्रथा का विशेष स्थान था।
"पति की मृत्यु के उपरान्त पत्ती को अपने आपको जला डालना बडा ही प्रशंसनीय कार्य समझा जाता था, किन्तु यह अनिवार्य नहीं था। जब कोई विधवा अपने आपको जला डालती है तो उसके घर वालों का सम्मान बढ़ जाता है और वह पति भक्ति के लिए प्रसिद्ध हो जाती है। जो विधवा स्वयं को नहीं जलाती है उसे पीले वस्त्र धारण करने पड़ते हैं तथा उसे बड़ा दुःखी जीवन व्यतीत करना पड़ता है। हिन्दुओं में विधवा को अत्यन्त घृणा की दृष्टि से देखा जाता था। अतः जीवन भर की परेशानियों से बचने के लिए विधवाएं सती होना अधिक ठीक समझती थी। जो विधवा पति के शव के साथ सती होती थी उसे समरण या सगमन कहते थे। पति के दूरस्थ स्थान पर होने या स्त्री के गर्भवती होने पर वह पश्चात् में पति की किसी विशेष वस्तु के साथ सती हो जाती थीं। इसे अनुमरण या अनुगमन कहा जाता था।
जौहर प्रथा
जौहर भारतीय वीरत्व की भावना का अमूल्य प्रतीक है। राजपूतों में जौहर प्रथा प्रचिलत थी। राजपूतों के रणभूमि में न्यौछावर हो जाने पर उनकी वीरांगनाएं स्वयं हंसते-हसते अग्नि को समर्पित हो जाती थी। ऐसा वे इसलिए करती थी क्योंकि वे शत्रु के हाथ में पड़कर अपने को अपमानित होने से मर जाना उचित समझती थी। इनबतूता ने रणथम्भौर के राजा हम्मीर देव के घराने के जौहर का उल्लेख किया है। अलाउद्दीन खिलजी से स्वयं की रक्षा के लिए चित्तौड़ की रानी पद्मिनी ने जौहर किया था। मुहम्मद तुगलक द्वारा लम्पिला पर आक्रमण करने पर वहां की नारियों ने जौहर किया था।
पर्दा प्रथा
सल्तनत काल में पर्दा प्रथा का प्रचलन अत्यधिक बढ़ गया था। रजिया बेगम इस प्रथा की अवहेलना कर बिना पर्दे के दरबार में जाती थी, किन्तु मुस्लिम समाज में इसका अत्यधिक महत्व था। फिरोज तुगलक ने तो "मुसलमान स्त्रियों को दरगाहों आदि के दर्शन के लिए जाने पर भी रोक लगा दी थी।" उच्च घरानों की स्त्रियां पालकियों में चलती थी जबकि निम्न वर्ग की मुस्लिम स्त्रियां सिर से पैर तक अपने को बुर्के से ढके रखती थी। हिन्दु स्त्रियां अपहरण के भय से केवल मुंह पर पल्ला डाले रहती थीं। किसानों की स्त्रियां तो बिना पर्दा डाले खेतों में कार्य करती थी। मुस्लिम स्त्रियों में ही पर्दा प्रथा का विशेष महत्व था हिन्दू समाज में नहीं।
बाल-विवाह
तुर्की सरदार किसी सुन्दर कन्या को देखते ही
उठा ले जाते थे, इससे हिन्दुओं में बाल-विवाह की प्रथा ने जन्म लिया।
स्त्री शिक्षा सल्तनत युग में स्त्री शिक्षा
की समुचित व्यवस्था नहीं थी। शिक्षा केवल सम्पन्न एवं उच्च घराने की स्त्रियों को
ही प्राप्त थी। उच्च वर्ग एवं धन-सम्पन्न घरानों की स्त्रियों को नृत्य व संगीत की
शिक्षा दी जाती थी। देवलरानी, रूपवती एवं पदमावती इस
युग की विदुषी महिलाएं थी। रजिया एक कुशल प्रशासिका थी।
सल्तनतकालीन आर्थिक स्थिति
तुर्कों के आक्रमण से पूर्व भारत एक
समृद्धिशाली देश था। विदेशियों ने देश की अतुल सम्पत्ति को देखकर आक्रमण किये थे।
भारत में शासन स्थापित करने से पूर्व मुसलमानों ने देश की सम्पत्ति को खूब लूटा
था। महमूद गजनवी ने राजकोष तथा मन्दिरों को लूटा था। उसके लगातार आक्रमणों का देश
की अर्थव्यवस्था पर बुरा प्रभाव पड़ा था। देश का व्यापार नष्ट हो गया था। महमूद
गजनवी का एकमात्र उद्देश्य धन लूटना था। इस स्थिति में सल्तनत युग में आर्थिक
विपन्नता एवं शोषण का ताण्डव ही दृष्टिगोचर होता है। कृषक एवं मजदूर वर्ग का शोषण
कर अमीर एवं राजपरिवार के लोग वैभवपूर्ण एवं विलासिता का जीवन व्यतीत कर रहे थे।
सल्तनत युग की अर्थव्यवस्था को निम्नलिखित बिन्दुओं में इंगित किया जा सकता है।
भू-राजस्व
दिल्ली के सुल्तानों ने अनेक पूर्ववर्ती
परम्पराओं के जो कि हिन्दू शासकों के समय प्रचलित थी,
ग्रहण किया। भू-राजस्व व्यवस्था सम्बन्धी परम्पराएं सल्तनत युग में
भी जारी रही। उदाहरण के लिए गांव की भूमि पर सुल्तान का पूर्ण अधिकार था और यदि वह
चाहे तो भूमि किसी को भी अनुदान में दे सकता था। सल्तनतयुगीन भू राजस्व व्यवस्था
के अन्तर्गत अग्नलिखित 4 प्रकार की भूमि आती थी -
1. मदद-ए-माशा
2. खालसा भूमि
3. अक्ता (अर्थ भूमि सम्पत्ति के एक भाग से है)
4. कृषि योग्य भूमि
सल्तनत काल में कृषि योग्य भूमि से जो राजस्व कर वसूल किया जाता था उसे खिराज कहा जाता था और इस प्रकार की कृषि योग्य भूमि को खिराज शूगि कहा जाता था। कुल उत्पादन का 1/5 भाग भू-राजस्व के रूप में लिया जाता जनता दरिद्र बन जाय ओर इतनी कम भी न ही कि धन की अधिकता जनता को विरोधी बना दे। अलाउद्दीन खिलजी ने कुल पैदावार का 1/2 भाग राजस्व कर के रूप में निर्धारित किया। राजस्व कर नकद एवं अनाज दोनों ही रूपों में लिया जाता था।
मुहम्मद तुगलक की कृषि सम्बन्धी नीति
अलाउद्दीन खिलजी की मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्र मुबारकशाह ने कोई नई राजस्व नीति नहीं अपनाई अपितु उसने अलाउद्दीन की नीति का ही अनुपालन किया।
उसकी नीति का विवरण निम्नवत् है -
दोआब में कर वृद्धि
दोआब में इस अतिरिक्त कर वृद्धि की योजना को जब कार्यान्वित किया गया, उस समय वहां अनावृष्टि के कारण अकाल पड़ गया। जनता ने इसका विरोध किया। लेकिन सुल्तान द्वारा नियुक्त कर्मचारियों ने कठोरतापूर्वक करवसूल करने का कार्य जारी रखा । अतः किसानों को बाध्य होकर अपनी भूमि छोड़नी पड़ी।
कृषि की उन्नति (कृषि विभाग का निर्माण)
मुहम्मद तुगलक ने कृषि की उन्नति के लिए कृषि विभाग की स्थापना की। उसका नाम दीवाने कोही रखा गया। राज्य की ओर से आर्थिक सहायता देकर कृषि के योग्य भूमि का विस्तार करना इस विभाग का मुख्य उद्देश्य था। प्रयोग असफल रहा ओर उसे इस योजना को त्यागना पड़ा।
फिरोजशाह तुगलक
मुहम्मद तुगलक की मृत्यु के पश्चात् उसके उत्तराधिकारी फिरोजशाह तुगलक के सम्मुख जहां एक ओर राजकोष रिक्त था वहीं दूसरी ओर दोआब व उसके निकटवर्ती प्रदेशों में दुर्भिक्ष का ताण्डव नृत्य था। कृषक वर्ग जर्जरित स्थिति में था, फिरोजशाह ने सभी स्थानों के कृषकों के साथ समान नीति अपनाई । गृह कर व चराई कर को छोड़कर अन्य उपकरों को समाप्त कर दिया गया। कुल पैदावार का 4 प्रतिशत भू-राजस्व कर के रूप में निर्धारित किया गया। जिन गांवों में नहरों से सिंचाई होती थी वहां पर पैदावार का 1/10 भाग जल के रूप में लगाया गया। फिरोजशाह तुगलक की मृत्यु के पश्चात् तुगलक वंश का पतन हो गया और सैय्यद वंश के हाथों सत्ता आ गई।
अलाउद्दीन खिलजी का बाजार नियन्त्रण
खिलजी का बाजार नियन्त्रण निःसन्देह एक
अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य था।
उद्देश्य की पूर्ति हेतु कार्य अपने उक्त
उद्देश्य की पूर्ति के लिए अलाउद्दीन खिलजी ने खालसा भूमि एवं अधीनस्थ सामन्तों की
भूमि से राजस्व उपज के रूप में वसूल करना आरम्भ किया। यह घोषित किया गया कि
अधिक-से-अधिक अनाज शासन द्वारा एकत्रित किया जाय। कोई भी व्यक्ति सरकारी परिषद के
बिना सीधा कृषक से अनाज नहीं खरीद सकता था।
परिणाम
अलाउद्दीन खिलजी की इस बाजार नियन्त्रण की नीति के जो परिणाम सामने आये इतिहासविद्वों ने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। अनाज, कपड़ा व दैनिक आवश्यकता की वस्तुएं सस्ती हो गई। रहन-सहन का खर्च काफी गिर गया।
व्यापार
आन्तरिक व्यापार
यह मुख्यतः वैश्य मुल्तानी,
मारवाडी व गुजराती लोगों द्वारा होता था। डॉ. लाल अलाउद्दीन के समय
में बंजारों का घुमक्कड़ व्यापारियों के रूप में वर्णन करते हैं। व्यापार सड़कों
तथा नदियों से होता था। डॉ. युसूफ हुसैन के अनुसार, "देश
का आन्तरिक व्यापार अत्यन्त विकसित था तथा देश के सभी बड़े केन्द्रों में साहूकार
तथा थोक व्यापारी थे, जो अत्यन्त धनवान थे।
विदेशी व्यापार
मध्यकाल में विदेशी व्यापार बड़ा उन्नत था।
यह जल व स्थल दोनों मार्गों से होता था।
सूरत, भडौंच,
कालीकट गोआ, कोचीन, सोनारगांव,
चटगांव आदि प्रमुख बन्दरगाह थे। जहां से विदेशी व्यापारी
जड़ी-बुटियां, गोंद, अदरक, काली मिर्च, नील ले आते थे और उनके बदले में घोड़ा,
तांबा तथा सोना छोड़ जाते थे।"
रेशमी वस्त्र चीन व इराक से,
कांच का सामान वेनिस से, शराब यूरोप से,
दास अफ्रीका से तथा घोडे. सोना, चांदी,
विलास की सामग्री आदि अन्य देशों से आयात किए जाते थे।
खाद्य पदार्थ, सूती व रेशमी वस्त्र, छींट नील, मसाले, शोरा, चीनी, अफीम आदि का निर्यात होता था। कृषि की उपज, सूती तथा रेशमी वस्त्र, अफीम, नील व जस्ता आदि वस्तुएं विदेशों को भेजी जाती थीं।
कृषि एवं उद्योग धन्धे
अलाउद्दीन खिलजी के समय में कृषि व उद्योग-धन्धों की स्थिति निम्नवत् थी -
कृषि
सल्तनत काल में कृषि का उद्योग प्रधान था, अन्न का उत्पादन पर्याप्त मात्रा में होता था। वस्तुएं सस्ती बिकती थी। अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल में धान 5 जीतल प्रति मन था। गेंहू 71/2 जीतल प्रति मन था। जौ चार जीतल प्रति मन था।
किसान दो फसलें उगाते थे। दाल, गेंहू, ज्वार, जौ, मटर, चावल, गन्ना और तिलहन मुख्य उपजें थी। कपास की खेती अधिक होती थी। फलों के बाग लगाये जाते थे। अंगूर, सेव, आम, नारंगी, छुआरा तथा अंजीर बहुत होता था।
वस्त्र उद्योग
सल्तनत काल में वस्त्र उद्योग प्रमुख उद्योग था। 'बंगाल सूती कपड़े के लिए विश्व के धनी देशों में से एक स्थान था। बंगाल के वृहद् मात्रा में रेशम का उत्पादन होता था। यहां पर ऊन पहाड़ी भेड़ों से प्राप्त होती थी। बंगाल के अतिरिक्त खम्भात भी महत्वपूर्ण वस्त्र उद्योग का केन्द्र था। यहां रेशम के वस्त्र तैयार होते थे।
धातु उद्योग
सोना, चांदी, पीतल, कांसा, लौह, आदि धातुओं की वस्तुओं का निर्माण सल्तनत काल में होता था। गुजरात के स्वर्णकार सोने व चांदी से तैयार माल पर नक्काशी के लिए प्रसिद्ध थे। सोने व चांदी के कार्य के लिए विशेष कारखाने थे। गुजरात एवं बंगाल में मुंगे का कार्य होता था। फतेहपुर सीकरी, बिहार एवं बरार कांच की वस्तुओं के निर्माण के लिए प्रसिद्ध था। हाथी दांत का कार्य भी होता था।
चीनी उद्योग
सल्तनत युग में चीनी या खांड का उद्योग अत्यन्त उन्नत था। इस उद्योग का प्रमुख केन्द्र बंगाल था।
चमड़ा उद्योग
चर्म उद्योग का प्रमुख केन्द्र गुजरात था। “चमड़े की चटाइयों पर सुन्दर पशु-पक्षियों के चित्र बनाये जाते थे। चर्मकार जूते, मश्क एवं कृषि के कार्य आने वाली चमड़े की वस्तुओं का निर्माण करते थे।
काष्ठ उद्योग
सल्तनत काल में काष्ठ उद्योग भी उन्नति पर था। पलंग खूटी, दरवाजे, खिलौने, आदि लकड़ी के बनाये जाते थे।
कागज उद्योग
सल्तनत काल में कागज उद्योग के लिए दिल्ली
एवं गुजरात प्रसिद्ध थे। कागज विशेष रूप से सरकारी कार्य एवं पुस्तकें लिखने के
लिए प्रयोग किया जाता था।
शिल्प
दिल्ली के भवन निर्माता एवं शिल्पकार सम्पूर्ण मुस्लिम जगत में सर्वश्रेष्ठ कलाकार थे।" शिल्पकारों को राजकीय संरक्षण प्राप्त था।
मुद्रा
मध्यकाल में सोने, चांदी तथा तांबे के बने सिक्कों द्वारा विनिमय होता था। कौड़ी का भी प्रचलन था। सल्तनत काल में मुद्रा के क्षेत्र में अनेक सुधर किए गए। इल्तुतमिश ने चांदी के टंके तथा दौकानी नामक छोटा सिक्का चलाया। मुहम्मद तुगलक ने सोने के स्थान पर तांबे की सांकेतिक मुद्रा चलाई।
कर
मुख्य रूप से चार प्रकार के कर वसूल किए
जाते थे-
1. खम्स,
2. जजिया,
3. खिराज व
4. जकात
खम्स- 'खम्स' शब्द का तात्पर्य है 1/5 अर्थात् सेना द्वारा लूटे गए धन का 1/5 भाग राजकोष में जमा किया जाए तथा 4/5 भाग सैनिकों में बांट दिया जाए।
जजिया- यह
मात्र गैर मुसलमानों से ही वसूल किया जाता था। सुल्तान इसकी वसूली को अपना पवित्र
कर्तव्य मानते थे। इसमें मूर्तिपूजकों व काफिरों को भी सम्मिलित कर दिया गया। 'जजिया केवल काफिरों पर उनके कुफ्र के दण्ड के रूप में लगाया जाता था।
कुरान में इस्लाम स्वीकार न करने वाले व्यक्ति के लिए मृत्यु दण्ड की व्यवस्था की
गई है, किन्तु मुहम्मद बिन कासिम ने सोचा कि बिना हिन्दुओं
की सहायता के शासन कैसे होगा, अतः उसने 'जजिया की प्रथा का सूत्रपात किया। मुस्लिम धर्मशास्त्रों में जजिया को
न्यायसंगत माना गया है
जजिया कर देने वाले व्यक्ति तीन श्रेणियों
में विभक्त थे
1. उच्च श्रेणी - जिनकी आर्थिक स्थिति
अच्छी थी। ये 48 दिरहम वार्षिक जजिया देते थे।
2. मध्यम वर्ग - सामान्य आर्थिक स्थिति
वाले लोग। ये 24 दिरहम वार्षिक जजिया देते थे।
3. निम्न श्रेणी - कम आय वाले लोग। इन्हें 12 दिरहम वार्षिक जजिया देना पड़ता था।
खिराज
यह कर हिन्दू एवं मुसलमानों दोनों से लिया जाता था। भिन्न-भिन्न शासकों के समय में इसकी दर भिन्न-भिन्न शासकों के समय में इसकी दर भिन्न-भिन्न रही। इसे नकद अथवा अनाज दोनों रूपों में जमा करवाया जा सकता था। सामान्यतः यह उपज का 1/3 भाग होता था, किन्तु कुछ साम्राज्यवादी शासकों ने इसे 1/2 भाग कर दिया था, मगर यह इससे अधिक नहीं वसूला जा सकता था।
जकात
यह मुसलमानों से लिया जाने वाला धार्मिक कर था, किन्तु यह बलपूर्वक नहीं लिया जाता था एवं अल्प वयस्क, दास, ऋणी, विक्षिप्त, और मुसलमान आदि से नहीं लिया जाता था। निसाव से कम होने पर इसे नहीं वसूला जाता था। कपड़ा, मकान, भोजन, पुस्तकें, सवारी, नौकर, फर्नीचर, कृषि के लिए पशु आदि इस कर से मुक्त थे।