History of Medieval India, Pala Empire, History of Pala Dynasty ,मध्यकालीन भारत का इतिहास , पाल साम्राज्य, पाल वंश का इतिहास


प्रारम्भिक मध्यकालीन भारत
(Early Medieval India)

(750 ई. से 1200 ई. तक) 

(प्रमुख राजवंश, चोल साम्राज्य, कृपि एवं राजनैतिक संरचनाएँ, राजपुत्र। सामाजिक गतिशीलता की सीमा। स्त्रियों की स्थिति, सिन्ध में अरबों का विस्तार, गजनवी राज्य, सांस्कृतिक प्रवृत्तियाँ, धार्मिक स्थितियाँ; मंदिरों तथा मठ संस्थाओं का महत्त्व; शंकराचार्य; इस्लाम; सूफी परम्परा, साहित्य एवं विज्ञान। अलवबेरूनी का भारत, कला तथा स्थापत्य)

(Major dynasties; the Chola Empire, Agrarian and political structures, The Rajaputras, Extent of social mobility, Position of women, The Arabs in Sind and the Ghaznavides, Cultural trends, Religious conditions : importance of temples and monastic institutions; Sankaracharya; Islam, Sufism, Literature and Science, Alberuni’s India’, Art and Architecture.) 

उत्तरी भारत के प्रमुख राजवंश (Important States of North India) -आठवीं शताब्दी में सिन्ध विजय के अतिरिक्त तीन शक्तिशाली राज्यों-गुर्जर-प्रतिहार, पाल एवं राष्ट्रकूट का उदय हुआ। इसी दीरान आठवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से दसर्वी शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक कन्नौज पर स्वामित्व के लिए त्रिदलीय संघर्ष चलता रहा, जिसमें भाग लेने वाले राजा प्रमुख रूप से वत्सराज, नागभट्ट द्वितीय, मिहिरभोज, रामभद्र , महेन्द्रपाल (गुर्जर प्रतिहार राज्य से) देवपाल, धर्मपाल, विग्रहपाल, नारायण पाल (पाल शासक) एवं ध्रुव गोविन्द तृतीय, कृष्ण द्वितीय, अमोघवर्ष प्रथम (राष्ट्रकूट-वंश) थे। 

कन्नौज पर प्रभुत्व स्थापित करने के लिए हुए संघर्ष में उत्तरी भारत की दो शक्तियों-वंगाल के पाल एवं मांडव्यपुर (मंदौर) के गुर्जर-प्रतिहारों का उदय हुआ।

बंगाल के पाल (The Palas of Bengal) 

तिब्बती इतिहासकार लामा तारानाथ एवं रामचरित के लेखक संध्याकरनन्दी के अनुसार पाल शासक क्षत्रिय वंश के थे। आर्यमंजूथ्रीमूलकल्प के अनुसार पालवंश का संस्थापक शूद्र बतलाया गया है। “अष्टस्हसिकाप्रज्ञापारमित ' नामक बौद्ध ग्रन्थ के अनुसार पाल वंश का संस्थापक किसी सैनिक अधिकारी राजभट्ट से सम्बन्धित था। 

तिव्वती इतिहासकार लामा तारानाथ के अनुसार पाल वंश के संस्थापक गोपाल का जन्म पुण्ड्रवर्धन (बोगरा जिला) या वरेन्द्री (पूर्व बंगाल) के पास हुआ था एवं उसे बंगाल का राजा निर्वाचित किया गया था, राष्ट्रकूट अभिलेख के अनुसार पालों की आदिभूमि गौड़ थी। पालवंश के संस्थापक गोपाल के राजा निर्वाचित होने का उल्लेख “खलीमपुर-ताम्रपत्र अभिलेख में किया गया है। खलीमपुर-ताम्रपत्र अभिलेख के अनुसार गोपाल के पिता का नाम वप्यट एवं पितामह का नाम दयित विष्णु था।

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पाल वंश के शासकों का परिचय 

गोपाल (750-770 ई.)

पाल वंश के संस्थापक एवं प्रथम शासक गोपाल ने बंगाल में व्याप्त अव्यवस्था को दूर करने एवं पालों की शक्ति का विस्तार करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया। गोपाल ने पुण्ड्र, वंग, अंग, मगध, कामरूप पर अधिकार कर अपने राज्य की सीमा का विस्तार किया। देवपाल के पर लाजइलक के अनुसार गोपाल समुद्र-पयन्त भूमि का जेता था। गोपाल बौद्ध घर्म से प्रमावित या, अतः उसने मगधघ विजब के बाद विहार शरीफ के पास ओदन्तपुरी विहार की स्थापना की धी। आर्यमंजूश्रीमूलनकल्प के अनुसार गोपाल ने 27 वर्षों तक शासन किया एवं लामा तारानाथ के अनुसार उसका काल 750-770 ई. तक था।

धर्मपाल (770-810 ई.)

धर्मपाल पाल वंश का सर्वाधिक योग्य शासक था। धर्मपाल के समय में कन्नौज में त्रिदलीय संघर्ष चल रहा था। अपने शासनकाल में धर्मपाल ने मगध, वाराणसी, प्रयाग पर अधिकार कर कन्नौज पर आक्रमण किया। उसी समय चक्रायुध को कन्नौज का राजा बनाया गया था।  खलीमपुर ताम्रपत्र अभिलेख के अनुसार धर्मपाल ने एक दरवार आयोजित किया था, जिसमें भोज (वरार), मत्स्य (जयपुर), मद्र (पंजाब), कुरू (थानेश्वर), यदु (मथुरा या द्वारिका), यवन (सिन्ध का अरब शासक), अवन्ती (मालवा), गांधार (उत्तरी-पश्चिमी सीमा), कीड (कांगडा) के शासकों ने भाग लिया था।

11 वीं शताब्दी के गुजराती कवि सोड़ढल ने उदयसुन्दरी कथा में उसे “उत्तरापथ स्वामी' कहा है। धर्मपाल ने परमसौगात , महाराजाधिराज, परमेश्वर, परमभट्टारक की उपाधियाँ धारण की थी। नारायण के भागलपुर अभिलेख में उसे “समान कर लगाने वाला' कहा है। विक्रमशिला और सोमापुर विहारों की स्थापना एवं बोधगया में चतुर्मुख महादेव  की मूर्ति धर्मपाल ने स्थापित की थी।

देवपाल (810-850 ई.)

देवपाल एक पराक्रमी शासक था। उसके विजय अभियानों की जानकारी मुंगेर, भागलपुर एवं वादल अभिलेखों से प्राप्त होती है। देवपाल ने हणों, उत्कलों, गुर्जर, प्रतिढारों एवं द्रविड़ों को परास्त किया था। उत्तर में हिमालय से दक्षिण में विन्ध्य तक आक्रमण कर साम्राज्य का विस्तार किया था।

अरब यात्री सुलेमान के अनुसार राष्ट्रकूट एवं गुर्जरों से भी देवपाल अधिक शक्तिशाली था। शासन के अन्तिम चरण (843-850 ई.) के मध्य मिहिरभोज ने देवपाल को पराजित किया। घोस रांवा (विहार) के अभिलेख के अनुसार देवपाल ने नालंदा महाविहार का आचार्य नग्रहार निवासी एक ब्राह्मण को नियुक्त किया। देवपाल ने अपने समय में अपनी सत्ता का विस्तार पूर्व में कामरूप, दक्षिण में कलिंग, पश्चिम में विन्ध्य एवं मालवा तक किया था।

प्रथम पाल साम्राज्य का पतन

देवपाल के पश्चातू प्रथम पाल साम्राज्य का पतन हो गया। अयोग्व उत्तराधिकारियों में साम्राज्य के लिए संघर्ष होने लगा। फलतः पाल साम्राज्य वंगाल एवं विहार तक ही सिमटकर रह गया। देवपाल के वाद पाल साम्राज्य में निम्न लिखित अयोग्य राजा हुए-

विग्रहपाल (850-854 ई.), नारायणपाल (854-915 ई.), राज्यपाल (915-940 ई.), गोपाल द्वितीय (940-960 ई.), विग्रहपाल द्वितीय (960-988 ई.) हुए, इन राजाओं के अयोग्यता के कारण पालों की सत्ता बिहार में ही सिमटकर रह गई, वनगढ़ अभिलेख के अनुसार विग्रहपाल द्वितीय सेना के साथ भटकने वाला राजा था। 

द्वितीय पाल साम्राज्य का उदय

महीपाल प्रथम (988-1038 ई.)

पालों की शक्ति को पुर्नस्थापित करने वाला द्वितीय पाल साम्राज्य का प्रथम शासक महीपाल प्रथम था। महीपाल प्रथम पालों के सर्वाधिक शक्तिशाली देवपाल के समान पराक्रमी शासक था। अभिलेखों के अनुसार उसने समतट (दक्षिण पूर्वी बंगाल), वरेन्द्र (पूर्वी बंगाल), राढ़ (पश्चिमी बंगाल), दक्षिणी बिहार तिरहुत (तीर भुक्ति) एवं बनारस पर अधिकार किया था। 

महीपाल प्रथम राजेन्द्र चोल एवं गांगेय देव (कलचूरी) से परास्त हुआ था। महीपाल प्रथम ने वोधगया, नालंदा, सारनाथ, बनारस के अनेक विहारों, मन्दिरों का जीर्णोद्धार एवं निर्माण कराया था।

नयपाल (1038-1055 ई.)

पाल साम्राज्य का पतन पुनः होने लगा था। नयपाल का कलचुरि शासक कर्ण से संघर्ष चला, जिसके लिए विक्रमशिला के प्रधान आचार्य दीपंकरश्री। ज्ञानअतिश की सलाह से आपस में समझौता कर लिया गया, जिसके फलस्वरूप मगध में स्वतन्त्र राज्यों का उदय हुआ।

विग्रहपाल तृतीय (1055-1072 ई.)

विग्रहपाल इस दौरान उत्तर-विहार तक सिमटकर रह गया। अंग में राष्ट्रकूट, गया में चिकोर वंश, गुजरात में चालुक्य एवं उड़ीसा में सोमवंशी शासकों का अधिकार हो गया। विग्रहपाल के काल से पालवंश का काया पतन प्रारम्भ हो गया। इसके बाद के शासक महिपाल (1070- 1075 ई.) को कैवर्तों ने मार दिया। महिपाल द्वितीय की मृत्यु के वाद दो पाल शासकों-शूरपाल द्वितीय एवं रामपाल में सत्ता के लिए संघर्ष हुआ, जिसमें रामपाल विजयी रहा।

रामपाल (1077-1130 ई.)

रामचरित के लेखक संध्याकरनन्दी के अनुसार रामपाल ने विहार और वंगाल के 3 सामन्तों की सहायता से कैवर्त

शासक भीम की हत्या कर दी थीं। रामपाल ने वंगाल के साथ-साथ कामरूप एवं उड़ीसा पर भी आक्रमण किया एवं विजय प्राप्त की। अपने मित्र मथनदेव की मृत्यु से दुःखी होकर रामपाल ने गंगा में प्राण विसर्जित कर दिये थे।

इसके बाद कुमारपाल एवं मदनपालों ने पाल वंश का अन्त किया। सन्‌ 1160 ई. में पालों के अन्तिम शासक गोविन्दपाल को पदच्युत कर गहडवालों ने मगध पर आक्रमण कर लिया था। 

सामाजिक जीवन

पाल शासनकाल में समाज में अनेक जातियाँ एवं उपजातियाँ थी। वृहदू-धर्मपुराण में ब्राह्मण के अलावा 36 गैर ब्राह्मण जातियों का उल्लेख मित्रता है। वृहद्‌-धर्मपुराण में उत्तम (कर्ण, उग्र, गान्धिक), मध्यम (तक्षण, रजक, आभीर) एवं अधम जातियों का उल्लेख मिलता है। इस काल में समाज में क्षौर-कर्म, जातकर्म, उपनयन, अन्नप्राशन, विवाह इत्यादि संस्कार, दुर्गा, गणेश एवं अन्य देवताओं का पूजनोत्सव, होली तथा काम महोत्सव मनाये जाने का उल्लेख मिलता है। पालकालीन समाज में सामन्ती व्यवस्था प्रचलित थी। गणिकाएं, स्त्री दासी एवं देवदासी का प्रचलन था। शतरंज और पासा खेल खेला जाता था। घोड़ागाड़ी, हाथी, नाव, बैलगाड़ी का प्रयोग किया जाता था। वहुविवाह का प्रचलन था। विवाह में गोत्र एवं जाति तथा परिवार का ध्यान रखा जाता था। 

आर्थिक व्यवस्था

पालकालीन अर्थव्यवस्था ग्रामीण परिवेश पर आश्रित वी। इस काल में प्रमुख रूप से कपास, सुपारी, पान, धान, गन्ना एवं आम की खेती की जाती थी। मंदिरों, बौद्ध विहारों, ब्राह्मणों, नागरिकों और सैन्य अधिकारियों को पका कर दान में प्रदान की जाती थी। पालकाल में पदाधिकारियों का उल्लेख मिलता है-षष्टाधिकृत, विषयपति, ग्रामपति, दशअपराधिक, चौरोद्धरणिक, क्षेत्रपाल, महाअक्ष- पटलिक, ज्येष्ठ कायस्य 

राज्य की आमदनी हिरण्य, शुल्क, दंस अपराध चौरोद्धरण से होती थी। भूमि पर उपरिकर, भाग (1/6), भोग, कर लगाये जाते थे। धर्मपाल के एक अभिलेख के अनुसार इस काल में द्रम (द्रम्म) नामक सिक्के का प्रचलन था। पालकालीन समाज में वस्त्र-उद्योग, चीनी, नमक-उद्योग, पत्थर व मिट्टी के बर्तन, कलात्मक मूर्तियों का निर्माण होता था। पालों के समय दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों एवं चीन से व्यापार किया जाता था। 9वीं शताब्दी का अरबयात्री सुलेमान इस काल के निर्मित वस्त्रों की प्रशंसा करता था। 

प्रशासनिक व्यवस्था

पालों की राजधानी अक्सर बंगाल और विहार में ही परिवर्तित होती रहती थी। यहाँ पर वंशानुगत राजतन्त्र था। परमेश्वर, भट्टारक, परमभट्ठारक, परमसौगात , महाराजाधिराज इनकी उपाधियाँ होती थीं। पालों में गोपाल के काल में चुनाव के प्रमाण मिले हैं। प्रशासनिक सुविधा की दृष्टि से सारा साम्राज्य भुक्ति, विषय, विधि, मण्डल एवं ग्राम में विभक्त था। राजा के शासन के लिए उनके सहयोगियों में राजामात्य, महाकतकृतिक, महाप्रतिहार, विषयपति, दण्डिक, ग्रामिक होते थे। पालों के प्रमुख मन्त्री-गर्ग, दर्भपाणि, केदार मिश्र, गौरव मिश्र थे।

कलात्मक प्रगति

पालों के साम्राज्य में धर्म समन्वित कला का विकास हुआ। ओदंतपुरी , विक्रमशिला, सोमापुर महाविहारों की स्थापना एवं पहाड़पुर के स्तूपों का विस्तार इस काल में ही हुआ था। गया में नयपाल राजा के समय में गदाघर एवं वटेश्वर के मन्दिरों का निर्माण हुआ। गया के विष्णुपद मन्दिर का अर्द्धमण्डप पालों ने वनवाया था। पालकालीन दुर्ग निम्नलिखित थे -

मुदूगगिरि (मुंगेर), जयनगर (लखी सराय), इंडपे, सूरजगढ़ा, नौलागढ़, जयमंगलागढ़, अलौलीगढ़, बटपर्वतक, सुल्तानगंज (वरेश्वर स्थान), शाहघाट, चम्पानगर, अमौना, कुर्किहार, धरावत, अफसढ़ एवं पाटलिपुत्र।

मध्यकालीन कला की पूर्व शैली का उदूभव इसी काल में हुआ था। अभिलेखों से पालकालीन नालन्दा के दो प्रसिद्ध शिल्पकार 'धीमान एवं विटपाल' का नाम प्राप्त होता है। अष्टसहस्त्रिकाप्रज्ञा पारमिता, पंचरक्ष तत्कालीन चित्रित पाण्डुलिपियाँ एवं महा श्री तारा एक चित्र था जो वर्तमान में भी उपलब्ध है।

शिक्षा एवं साहित्य

सन्ध्याकरनन्दी ने रामचरित, चक्रपाणिदत्त ने चिकित्सा संग्रह, आयुर्वेददीपिका, जीमूतवाहन ने दाय भाग, व्यवहार मातृका एवं काल विवेक की रचना की थी। वद्भदत्त ने लोकेश्वरशतक एवं बौद्ध-चर्यापदों की रचना पालों के काल में होने लगी थी। इस काल के बौद्ध विद्वानों में कमलशील, दीपंकर श्रीज्ञानअतिश, राहुलभ्रद प्रमुख थे। पालों के अधीन संस्कृत, बंगला लिपि एवं जनभाषा का विकास हो चुका था

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