Human Digestive System, मानव पाचन तंत्र, एवं पाचन तंत्र के विकार

पाचन तंत्र

मनुष्य का पाचन तंत्र आहार नाल एवं सहायक ग्रंथियों से मिलकर बना होता है।

आहार नाल

आहार नाल अग्र भाग में मुख से प्रारंभ होकर पश्च भाग में स्थित गुदा द्वारा बाहर की ओर खुलती है।

मुख (Mouth)

मुख, मुखगुहा में खुलता है। मुखगुहा में कई दांत और एक पेशीय जिह्बा होती है। प्रत्येक दांत जबड़े में बने एक सांचे में स्थित होते हैं जिसे गर्तदंती (Thecodont) कहते हैं ।

दाँत (Teath)

मनुष्य सहित अधिकांश स्तनधारियों के जीवन काल में दो तरह के दांत आते हैं- अस्थायी दांत-समूह अथवा दूध के दांत जो वयस्कों में स्थायी दांतों से प्रतिस्थापित हो जाते हैं। इस तरह को दांत (दंत) व्यवस्था को द्विबारदंती(Diphyodont) कहते हैं।

वयस्क मनुष्य में 32 स्थायी दांत होते हैं, जिनके चार प्रकार हैं जैसे- कृतक( I ), रदनक ( C ),  अग्र-चर्वणक ( PM ) और चर्वणक ( M ) के क्रम में एक दंतसूत्र के अनुसार होती है  । ऊपरी एवं निचले जबड़े के प्रत्येक आधे भाग में दांतों की व्यवस्था क्रम में एक दंतसूत्र के अनुसार होती है जो मनुष्य के लिए 255 है। इनैमल से बनी दांतों की चबाने वाली कठोर सतह भोजन को चबाने में मदद करती है। दाँतों का विस्तृत अध्ययन हम दन्त विन्यास में में करेंगे।

जिह्ना(Tongue)

जिह्ना स्वतंत्र रूप से घूमने योग्य एक पेशीय अंग है जो फ्रेनुलम द्वारा मुखगुहा की आधार से जुड़ी होती है। जिहा की ऊपरी सतह पर छोटे-छोटे उभार के रूप में पिप्पल (पैपिला) होते हैं, जिनमें कुछ पर स्वाद कलिकाएं होती हैं।

ग्रसनी (Pharynx)

मुखगुहा एक छोटी ग्रसनी में खुलती है जो वायु एवं भोजन, दोनों का ही पथ है। 'उपास्थिमय घाँटी ढक्कन, भोजन को निगलते समय श्वासनली में प्रवेश करने से रोकती है।

ग्रसिका अथवा ग्रासनली (Oesophagus)

ग्रसिका एक पतली लंबी नली है, जो गर्दन, वक्ष एवं मध्यपट से होते हुए पश्च भाग में "J" आकार के थैलीनुमा आमाशय में खुलती है। ग्रसिका का आमाशय में खुलना एक पेशीय (आमाशय-ग्रसिका) अवरोधिनी द्वारा नियंत्रित होता है।

आमाशय (Stomach)

आमाशय (गुहा के ऊपरी बाएं भाग में स्थित होता है), को मुख्यतः तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है- जठरागम भाग जिसमें ग्रसिका खुलती है, फंडिस क्षेत्र, काय मुख्य क्षेत्र और जठरनिर्गमी भाग जिसका छोटी आंत में निकास होता है।

छोटी आंत (Small intestine)

छोटी आंत के तीन भाग होते हैं- “C" आकार को ग्रहणी, कुंडलित मध्यभाग अग्रक्षुद्रांत्र और लंबी कुंडलित क्षुद्रांत्र आमाशय का ग्रहणी में _निकास जठरनिर्गम अवरोधिनी द्वारा नियंत्रित होता है। क्षुद्रांत्र बढ़ी आंत में खुलती है जो अंधनाल, वृहदांत्र और मलाशय से बनी होती है।

अंधनाल एक छोटा थैला है जिसमें कुछ सहजीवीय सूक्ष्मजीव रहते हैं। अंधनाल से एक अंगुली जैसा प्रवंध, परिशेषिका निकलता है जो एक अवशेषी अंग है। अंधनाल, बड़ी आंत में खुलती है। वृहदांत्र चार भागों में विभाजित होता है- आरोही, अनुप्रस्थ एवं अवरोही भाग और सिग्माभ वृहदंत्रअवरोही भाग मलाशय में खुलता है जो मलद्वार (Anus) द्वारा बाहर खुलता है।

 आहार नाल की दीवार में ग्रसिका से मलाशय तक, चार स्तर होते हैं  जैसे सिरोसा, मस्कुलेरिस, सबम्यूकोसा और म्युकोसा। सिरोसा सबसे बाहरी परत है और एक पतली मेजोथिलियम (अंतरंग अंगों की उपकला) और कुछ संयोजी ऊतकों से बनी होती है। मस्कुलेरिस प्राय: आंतरिक वर्तुल पेशियों एवं बाह्य अनुदैर्घ्य पेशियों की बनी होती है। कुछ भागों में एक तिर्यक पेशी स्तर होता है। सबम्यूकोंसा स्तर रुधिर, लसौका व तंत्रेकाओं युक्त मुलायम संयोजी ऊतक कौ बनी होती है। ग्रहणी में, कुछ ग्रंथियाँ भी सबम्यूकोसा में पाई जाती हैं। आहार नाल कौ ल्यूमेन 'की सबसे भीतरी परत म्यूकोसा है। यह स्तर आमाशय में अनियमित वलय एवं छोटी आंत में अंगुलीनुमा प्रवर्ध बनाता है जिसे अंकुर (Villi)कहते हैं। अंकुर कौ सतह पर स्थित कोशिकाओं से असंख्य सूक्ष्म प्रवर्ध निकलते हैं जिन्हें सूक्ष्म अंकुर कहते हैं, जिससे ब्रस-वार्डर जैसा लगता है। यह रूपांतरण सतही क्षेत्र को अत्यधिक बढ़ा देता है। अंकुरों में केशिकाओं का जाल फैला रहता है और एक बड़ी लसीका वाहिका (Vessel) होती है जिसे लैक्टीयल कहते हैं। म्यूकोसा कौ उपकला पर 'कलश-कोशिकाएं होती हैं, जो स्नेह के लिए म्यूकस का स्राव करती हैं। म्यूकोसा आमाशय और आंत में स्थित अंकुरों के आधारों के बीच लीबरकुन-प्रगुहिका (Crypts of Lieberkühn) भी कुछ ग्रंथियों का निर्माण करती है। सभी चारों परतें आहार नाल के विभिन्‍न भागों में रूपांतरण दर्शाती हैं।

पाचन ग्रंथियाँ (Digestive Glands)

आहार नाल से संबंधित पाचन ग्रंधियों में लार ग्रथियाँ, यकृत और अग्नाशय शामिल है। लार का निर्माण तीन जोड़ी ग्रंथियो द्वारा होता है। ये है गाल में कर्णपूर्व, निचले जबड़े में अधोज॑भ/अवचिबुकीय तथा जिव्हा के नीचे स्थित अधोजिहला। इन ग्रंथियों से लार मुखगुह में पहुँचती है।

यकृत (Liver)

यकृत मनुष्य के शरीर को सबसे बड़ी ग्रंथि है जिसका वयस्क में भार लगभग 1.2 से 1.5 किलोग्राम होता है। यह उदर में मध्यपट के ठीक नौचे स्थित होता है और इसकी दो पालियाँ (Lobes) होती है। यकृत पालिकाएं यकृत की संरचनात्मक और कार्यात्मक इकाइयां हैं जिनके अंदर यकृत कोशिकाएं रज्जु की तरह व्यवस्थित रहती है। प्रत्येक पालिका संयोजी ऊतक की एक पतली परत से ढकी होती है जिसे ग्लिसंस केपसूल कहते हैं। यकृत कौ कोशिकाओं से पित्त का स्राव होता है जो यकृत नलिका से होते हुए एक पतली पेशौय थैली- पित्ताशय में सांद्रेत एवं जमा होता है। पि्ताशय कौ 'नलिका यकृतीय नलिका से मिलकर एक मूल पित्त वाहिनी बनाती है । 'पित्ताशयी नलिका एवं अग्नाशयी नलिका, दोनों मिलकर यकृतअग्नाशयी वाहिनी द्वारा ग्रहणी में खुलती है जो ओडी अवरोधिनी से नियंत्रित होती हैं।

अग्नाशय  ग्रहणी के बीच स्थित एक लंबी ग्रंथ है जो बहि: स्रावी और अंत: स्रावी दोनों ही ग्रंथियों की तरह कार्य करती है। बहि: स्रावी भाग से क्षारीय अग्नाशयी स्राव निकलता है, जिसमें एंजाइम होते हैं और अंत:  भाग से इंसुलिन और ग्लुकेगोन नामक हामोंन का स्राव होता है।

भोजन का पाचन

पाचन की प्रक्रिया यांत्रिक एवं रासायनिक विधियों द्वारा संपन्न होती है। मुखगुहा के मुख्यतः दो प्रकार्य हैं, भोजन का चर्वण और निगलने की क्रिया। लार की मदद से दांत और जिह्मा भोजन को अच्छी तरह चबाने एवं मिलाने का कार्य करते हैं। लार का श्लेषम भोजन कणों को चिपकाने एवं उन्हें बोलस में रूपांतरित करने में मदद करता है। इसके उपरांत निगलने की क्रिया द्वारा बोलस ग्रसनी से ग्रसिका में चला जाता है। बोलस पेशीय संकुचन के क्रमाकुंचन (Peristalsis) द्वारा ग्रसिका में आगे बढ़ता है। जठर-ग्रसिका अवरोधिनी भोजन के अमाशय में प्रवेश को नियंत्रित करती है। लार (मुखगुहा) में विद्युत-अपघट्य (Electrolytes) ( Na+, K+, Cl-, HCO3-) और एंजाइम (लार एमाइलेज या टायलिन तथा लाइसोजाइम) होते हैं। पाचन की रासायनिक प्रक्रिया मुखगुहा में कार्बोहाइड्रेट को जल अपघटित करने वाली एंजाइम टायलिन या लार एमाइलेज की सक्रियता से प्रारंभ होती है। लगभग 30 प्रतिशत स्टार्च इसी एंजाइम की सक्रियता (PH 6.8) से द्विशर्करा माल्टोज में अपघटित होती है। लार में उपस्थित लाइसोजाइम जीवाणुओं के संक्रमण को रोकता है।


आमाशय की म्यूकोसा में जठर ग्रंथियाँ स्थित होती हैं। जठर ग्रंथियों में मुख्य रूप से तीन प्रकार की कोशिकाएं होती हैं,

1.म्यूकस का स्राव करने वाली श्लेषमा ग्रीवा 'कोशिकाएं

2.पेप्टिक या मुख्य कोशिकाएं जो प्रोएंजाइम पेप्सिनोजेन का स्राव करती हैं तथा

3.भित्तीय या ऑक्सिन्टिक कोशिकाएं जो हाइड्रोक्लोरिक अम्ल और नैज कारक श्रावित करती हैं 

अमाशय 4-5 घंटे तक भोजन का संग्रहण करता है। आमाशय की पेशीय दीवार के संकुचन द्वारा भोजन अम्लीय जठर रस से पूरी तरह मिल जाता है जिसे काइम (Chyme) कहते हैं। प्रोएंजाइम पेप्सिनोजेन हाइड्रोक्लोरिक अम्ल के संपर्क में आने से सक्रिय एंजाइम पेप्सिन में परिवर्तित हो जाता है; जो आमाशय का प्रोटीन-अपघटनीय एंजाइम है। पेप्सिन प्रोटीनों को प्रोटियोज तथा पेप्टोंस (पेप्टाइडों) में बदल देता है। जठर रस में उपस्थित श्लेष्म एवं बाइकार्बोनेट श्लेष्म उपकला स्तर का स्नेहन और अत्यधिक सांद्रित हाइड्रोक्लोरिक अम्ल से उसका बचाव करते हैं। हाइड्रोक्लोरिक अम्ल पेप्सिनों के लिए उचित अम्लीय माध्यम (PH 1.8) तैयार करता है। उचित अम्लीय माध्यम नवजातों के जठर रस में रेनिन नामक प्रोटीन अपघटनीय एंजाइम होता है जो दूध के प्रोटीन को पचाने में सहायक होता है। जठर ग्रंथियाँ थोड़ी मात्रा में लाइपेज भी स्रावित करती हैं।

छोटी आंत का पेशीय स्तर कई तरह की गतियां उत्पन करता है। इन गतियों से भोजन विभिन्‍न स्रावों से अच्छी तरह मिल जाता है और पाचन की क्रिया सरल हो जाती है। यकृत अग्नाशयी नलिका द्वारा पित्त, अग्नाशयी रस और आंत्र-रस छोटी आंत में छोड़े जाते हैं। अग्नाशयी रस में ट्रिप्सिनोजन, काइमोट्रिप्सिनोजन, प्रोकार्बोक्सीपेप्टिडेस, एमाइलेज और न्युक्लिएज एंजाइम निष्क्रिय रूप में होते हैं। आंत्र म्यूकोसा द्वारा स्रावित ऐटेरोकाइनेज द्वारा ट्रिप्सिनोजन सक्रिय ट्रिप्सिन में बदला जाता है जो अग्नाशयी रस के अन्य एंजाइमों को सक्रिय करता है। ग्रहणी में प्रवेश करने वाले पित्त में पित्त वर्णक (विलिरूबिन एवं विलिवर्डिन), पित्त लवण, कोलेस्टेरॉल और फास्फोलिपिड होते हैं, लेकिन कोई एंजाइम नहीं होता। पित्त वसा के इमल्सीकरण में मदद करता है और उसे बहुत छोटे मिसेल कणों में तोड़ता है। पित्त लाइपेज एंजाइम को भी सक्रिय करता है।

आंत्र श्लेषमा उपकला में गोब्लेट कोशिकाएं होती हैं जो श्लेषमा का स्राव करती है। म्यूकोसा के ब्रस बॉर्डर कोशिकाओं और गोब्लेट कोशिकाओं के स्राव आपस में मिलकर आंत्र स्राव अथवा सक्‍कस एंटेरिकस बनाते हैं। इस रस में कई तरह के एंजाइम होते हैं, जैसे-ग्लाइकोसिडेज डायपेप्टिडेज, एस्टरेज, न्यूक्लियोसिडेज आदि। म्यूकस अग्नाशब के बाइकार्बोनेट के साथ मिलकर आंत्र म्यूकोसा की अम्ल के दुष्प्रभाव से रक्षा करता है तथा एंजाइमों की सक्रियता के लिए आवश्यक क्षारीय माध्यम (PH 7.8) तैयार करता है। इसप्रक्रिया में सब-म्यूकोसल ब्रूनर ग्रंथि भी मदद करती है।

आंत में पहुँचने वाले काइम में उपस्थित प्रोटीन, प्रोटियोज और पेप्टेन (आंशिक का प्रोटीन) अग्नाशय रस के प्रोटीन अपघटनीय एंजाइम निम्न रूप से क्रिया करते हैं।

आंत्र रस के एंजाइम उपर्युक्त अभिक्रियाओं के अंतिम उत्पादों को पाचित कर अवशोषण योग्य सरल रूप में बदल देते हैं। पाचन के ये अंतिम चरण आंत के म्यूकोसल 'उपकला कोशिकाओं के बहुत समीप संपन्न होते हैं।

बड़ी आंत में कोई महत्वपूर्ण पाचन क्रिया नहीं होती है। बड़ी आंत का कार्य है-

(1)कुछ जल, खनिज एवं औषध का अवशोषण

(2) श्लेष्म का स्राव जो अपचित उत्सर्जी पदार्थ कणों को चिपकाने और स्नेहन होने के कारण उनका बाह्य निकास आसान बनाता है। अपचित और अवशोषित पदार्थों को मल कहते हैं, जो अस्थायी रूप से मल त्यागने से पहले तक मलाशय में रहता है।

पाचित उत्पादों का अवशोषण

अवशोषण वह प्रक्रिया है, जिसमें पाचन से प्राप्त उत्पाद यांत्रिक म्यूकोसा से निकलकर रक्‍्त या लसीका में प्रवेश करते हैं। यह निष्क्रिय, सक्रिय अथवा सुसाध्य परिवहन क्रियाविधियों द्वारा संपादित होता है। ग्लुकोज, ऐमीनो अम्ल, क्लोराइड आयन आदि की थोड़ी मात्रा सरल विसरण प्रक्रिया द्वारा रक्त में पहुंच जाती हैं। इन पदार्थों का रक्त में पहुंचना सांद्रण-प्रवणता (Concentration gradient) पर निर्भर है। हालांकि, ग्लूकोज और एमीनो एसिड जैसे कुछ पदार्थ वाहक प्रोटीन की मदद से अवशोषित होते हैं। इस क्रियाविधि को सुसाध्य परिवहन कहते हैं।

जल का परिवहन परासरणी प्रवणता पर निर्भर करता है। सक्रिय परिवहन सांद्रण-प्रवणता के विरुद्ध होता है जिसके लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है। विभिन्‍न पोषक तत्वों जैसे ऐमीनो अम्ल, ग्लुकोस (मोनोसैकेराइड) और सोडियम आयन (विद्युत-अपघट्य) का रक्त में अवशोषण इसी क्रियाविधि द्वारा होता है।

पदार्थों का अवशोषण आहारनाल के विभिन्‍न भागों जैसे-मुख, आमाशय, छोटी आंत और बड़ी आंत में होता है। परंतु सबसे अधिक अवशोषण छोटी आंत में होता है। अवशोषित पदार्थ अंत में ऊतकों में पहुंचते हैं जहाँ वे विभिन्‍न क्रियाओं के उपयोग में लाए जाते हैं। इस प्रक्रिया को स्वांगीकरण (Assimilation) कहते हैं।

 पाचक अवशिष्ट मलाशय में कठोर होकर संबद्ध मल बन जाता है जो तांत्रिक प्रतिवर्ती (Neural Reflex) क्रिया को शुरू करता है जिससे मलत्याग की इच्छा पैदा होती है। मलद्वार से मल का बहिक्षेपण एक ऐच्छिक क्रिया है जो एक बृहत्‌ क्रमाकुंचन गति से पूरी होती है।

पाचन तंत्र के विकार (Disorder of Digestive System)

आंत्र नलिका का शोथ जीवाणुओं और विषाणुओं के संक्रमण से होने वाला एक सामान्य विकार है। आंत्र का संक्रमण परजीवियों, जैसे- फीता कृमि, गोलकृमि, सूत्रकृमि, हुकवर्म, पिनवर्म, आदि से भी होता है।'

पीलिया (Jaundice) : इसमें यकृत प्रभावित होता है। पीलिया में त्वचा और आंख पित्त वर्णकों के जमा होने से पीले रंग के दिखाई देते हैं।

वमन (Vomiting) : यह आमाशय में संगृहीत पदार्थों की मुख से बाहर निकलने की क्रिया है। यह प्रतिवर्ती क्रिया मेडुला में स्थित वमन केंद्र से नियंत्रित होती है। उल्टी से पहले बेचैनी को अनुभूति होती है।

प्रवाहिका (Diarrhoea) : आंत्र (Bowel) की अपसामान्य गति की बारंबारता और मल का अत्यधिक पतला हो जाना प्रवाहिका (Diarrhoea) कहलाता है। इसमें भोजन अवशोषण की क्रिया घट जाती है।

कब्ज (Constipation) : कब्ज में, बृहदंत्र में मल रुक जाता है और आंत्र की गतिशीलता अनियमित हो जाती है।

अपच (Indigestion) : इस स्थिति में, भोजन पूरी तरह नहीं पचता है और पेट भरा-भरा महसूस होता है। अपच एंजाइमों के स्राव में कमी, व्यग्रता, खाद्य विषाक्तता, अधिक भोजन करने, एवं मसालेदार भोजन करने के कारण होती है।

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