जैव विकास तथा जैव विकास के सिद्धांत
जैव विकास के सिद्धांत -
आज के विभिन्न जीव उसी रूप में नहीं बने जिस रूप में आज पाए जाते हैं, बल्कि वे एक सामान्य पूर्वज रूप से, जो कहीं अधिक सरल प्रकार का रहा होगा, धीरे- धीरे विकसित हुए -जीवों के लक्षण विगत काल में बदलते रहे हैं; वे आज भी बदल रहे हैं, और भविष्य में भी वे बदलते रहेंगे। ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि जीव जिस वातावरण में रह रहे हैं वह भी बदलता रहता है, और इस परिवर्तनशील वातावरण में जीवों को जीवित बने रहने के लिए अनुकूलन की आवश्यकता होती है। -विगत काल के अनेक जीव आज विलुप्त हो चुके हैं। आज जो विभिन्न प्रजातियां मिलती हैं, उनका उद्भव एक क्रमिक और उत्यधिक धीमी प्रक्रिया द्वारा हुआ है। इस प्रक्रिया में सैकड़ों वर्षों से लेकर हजारों वर्ष तक लगे होंगे।
जैव विकास के प्रमाण -
जैव विकास का समर्थन करने वाले प्रमाण जीवविज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में मिलते हैं। इनमें से प्रमुख प्रमाण चार क्षेत्रों मे लिए गए हैं:-
आकारिकी प्रमाण- यद्यपि विभिन्न प्रजातियों के समूहों के जीव एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न होते हैं तथापि उनके कुछ लक्षणों में समानता होती है। विकास के सदंर्भ में आकारिकीमूलक प्रमाण निम्न लक्ष्णों से मिलते हैं:(क) समजात व समवृत्ति अंग (ख) अवशेषी अंग (ग) संयोजक कड़ियाँ।
(क) समजात अंग-ऐसे अंग जो उत्पत्ति या भू्रणीय परिवर्धन तथा मूल संरचना में तो समान हो लेकिन भिन्न कार्य के लिए अनुकूलित हों समजात अंग कहलाते हैं। उदाहरण-घोडा, चमगादड़, व्हेल, शील व मनुष्य के अग्रपाद आदि।
प्रत्येक उदाहरण में, अग्रपाद की विभिन्न अस्थियाँ : रेडियस-अलना, कार्पल, मेटाकार्पल और फैलेन्जेज शामिल हैं। विभिन्न प्रकार के कशेरूिक्यों के अलग-अलग दिखार्इ देने वाले अग्रपादों की संरचना में मूलभूत समानता इस सत्य को दर्शाती है कि ये पाद एक सर्वनिष्ठ प्रकार के पांच उंगली वाले पूर्वज से ही विकसित हुए हैं। इस प्रकार समजात अंग दर्शाते हैं कि विभिन्न जीवों की अलग-अलग सृष्टि नहीं हुर्इ है, बल्कि वे विकास प्रक्रिया द्वारा बनें हैं।
समवृत्ति अंग-कार्य में समान लेकिन संरचनात्मक रूप से भिन्न अंग समवृत्ति अंग कहलाते हैं। एक कीट का पंख व एक पक्षी या चमगादड़ का पंख समवृति अंग के उदारहरण है। पंख का कार्य समान है लेकिन कीट के पंख और कशेरूिक्यों के पंख के बीच कोर्इ संरचनात्मक समानता नहीं है।
(ख) अवशेषी अंग -अवशेषी अंग कोर्इ भी छोटा, हासिल या अपूर्ण रूप से विकसित (अक्रियात्मक) अंग है जो किसी पूर्वज में पूर्ण विकसित व क्रियात्मक रहा होगा। उदाहरण-मनुष्य के शरीर में बाल, कृमि रूप परिशेषिका, पुच्छ कशेरूकाएं आदि।(ग) सयोजी कड़िय़ाँ-जंतु या पौधे जिनमें दो विभिन्न समूहों के जीवों के अभिलक्षण होते हैं उन्हें संयोजी कड़ियाँ कहा जाता हैं। सयोजी कड़ियों से यह प्रमाणित हो जाता है कि जीवों के एक समूह का विकास दूसर समूह से हुआ है। यही बात जीवों की श्रृंखला में एक निरंतरता स्थापित करती हैं। इसका एक अच्छा उदाहरण जीवाश्म पक्षी आर्किआप्टेरिस है जो कि सरीसृप व पक्षी वर्ग के बीच की एक संयोजी कड़ी है। इस पक्षी की दंतयुक्त चोंच थी व एक (छिपकली की भाँति) लंबी अस्थियुक्त पूंछ और इसके पंखों में पक्षियों की भांति पर थे। सयोजी कड़िय़ाँ
भ्रूणविज्ञान से प्राप्त प्रमाण-
सभी कशेरूकियों के भ्रूण प्रारंभिक अवस्था में आकृति व संरचनात्मक रूप से समान होते हैं। यह समानता इतनी अधिक होती है कि उनमें भेद करना कठिन है तथा सभी कशेरूकी अपना जीवन एकल कोशिका युग्मनज (जाइगोट) से आरंभ करते है। अपने जीवन इतिहास में वे सभी द्विस्तरीय ब्लास्टुला व त्रिस्तरीय गैस्टुला अवस्थाओं व फिर मछली के समान गलफड़ों की स्थिति से गुजरते हैं।
भ्रूणविज्ञान के सभी विभिन्न पहलू इस तथ्य का प्रबल समर्थन करते हैं कि विभिन्न वगोर्ं के कशेरूकी प्राणियों का एक सर्वनिष्ठ पूर्वज था, और विकास की प्रक्रिया के दौरान वे एक दूसरे से भिन्न-भिन्न होते गए।
जीवाश्म विज्ञान से प्राप्त प्रमाण- जीवाश्म भूतकाल के जंतु व पादप जीवन के अवशेष हैं जो कि चट्टानों में या तो अत: स्थापित हुए पाए जाते है या सांचे में ढली बनावट अथवा चिन्ह के रूप में अस्थिभूत अवस्था में पाए जाते है।
आदिम युग के जीवाश्म बैक्टीरिया के हैं, उसके बाद अकोशिकीय जीवों के और उसके बाद क्रमश: मछलियों, एम्फिबियनों, रैप्टीलियों और उसके बाद पक्षियों और स्तनधारियों के मिलते हैं; तथा स्तनधारियों में भी अंतत: मानवों के जीवाश्म मिलते हैं। एक-एक अलग प्राणी की पूर्वजता से भी, जैसे कि घोड़े, ऊँट आदि की पूर्वजता से, जैव विकास का सीधा प्रमाण मिलता है। इसका बहुत अच्छा एक उदाहरण घोड़े के जातिवृत से मिलता है। अधिक तीव्र गति के लिए पादांगुलियों की संख्या घटी और क्रमश: इनका आकार बढ़ा व दांत घास खाने के लिए अनुकूलित हुए।
आण्विक जीवविज्ञान से प्रमाण- सभी प्राणियों में कोशिकाएं जीवन की मूलभूत इकाइयां होती है, कोशिका जैव अणुओं से निर्मित होती है जो कि सभी प्राणियों में सर्वनिष्ठ है।
तथापि, समान रासायनिक अभिलक्षणों वाले विकास क्रम में अधिक निकट संबंध दर्शाते हैं।
उदाहरण के तौर पर (i) मानव रक्त प्रोटीन सभी कपियों में चिंपेंजी के रक्त के सबसे ज्यादा समान है। या (ii) कुछ पादपों व कुछ शैवालों में क्लोरोफिल पाया जाता है अत: उनका अधिक निकट संबंध है। जीवों में रासायनिक घटकों के बीच की इस प्रकार की समानता को आण्विक सजातीयता (समजातीयता) या जैव रासायनिनक सजातीयतता कहते हैं और हाल के वर्षों में इनका प्रयोग विकास के संबंधों की स्थापना करने में किया जाता रहा है और यह वर्गीकरण का आधार निर्मित करता है।
विकास की प्रक्रिया-
विकास-प्रक्रिया के अनेक सिद्धांतों का प्रतिपादन किया जा चुका है। उनमें से कुछ जैसे लैमार्क का ‘‘अर्जित गुणों की अनुवांशिकता’’ का सिद्धांत व डी ब्रिज का उत्परिवर्तन का सिद्धांत अब केवल ऐतिहासिक महत्व के रह गए हैं। डार्विन का प्राकृतिक वरण का सिद्धांत आज भी मान्यता प्राप्त है लेकिन आनुवंशिकी (Genetics) में प्रगति के साथ इसका परिष्करण हुआ और यह ‘आधुनिक संश्लेषाणाात्त्मक सिद्धांत’ के रूप में विकसित हुआ जो कि वर्तमान समय में सर्वाधिक मान्यता प्राप्त विकास सिद्धांत है।
डार्विन का प्राकृतिक वरण का सिद्धांत-
एक अंग्रेज वैज्ञानिक, चाल्र्स डाविर्न (1809 -1882) ने प्राकृतिक चयन के सिद्धांत के आधार पर विकास-प्रक्रिया की व्याख्या की, वह आज भी दो बहुत महत्वपूर्ण योगदानों के कारण विवकास का जन्मदाता माना जाता है- उन्होंने सुझाव दिया कि (i) समस्त प्राणी पूर्वजों से एक दूसरे से संबंधित हैं व (ii) उन्होंने विकास की एक प्रक्रिया सुझार्इ और इसका नाम प्राकृतिक वरण दिया। डार्विन के अनुसार, जीव बड़ी संख्या में जीव पैदा करते हैं जो जीवित रह सकने वाले जीवों से कहीं अधिक होते हैं क्योंकि पर्यावरणीय संसाधन सीमित हैं। जीवन संघर्ष में, केवल वे ही जीव बचे रहते हैं जिनमें लाभकारी अनुकूलन हो चुके होते हैं, और जनन करते हैं जबकि हानिकारी अनुकूलन वाले जीव प्रकृति से विलुप्त हो जाते है। डार्विन ने इसे प्राकृतिक वरण कहा।
डार्विन के अनुसार नर्इ प्र्रजातियों का बनना: जैसे-जैसे पर्यावरण बदलता है वैसे- वैसे प्रकृति में नए अनुकूलनों का वरण होता है और कर्इ पीढ़ियों के पश्चात् एक प्रजाति को दूसरी प्रजाति में परिवर्तित करने के लिए पर्याप्त अभिलक्षण विकसित हो चुके होते हैं ताकि एक नर्इ प्रजाति बन जाए।
डार्विन ने विविधता की बात की लेकिन उन्हें विविधता के स्रोतों की जानकारी नहीं थी। आनुवंशिकी में प्रगति के साथ विविधता के स्रोतों की खोज भी हुर्इ और डार्विन के प्राकृतिक वरण के मूल सिद्धांत में थोड़ा परिवर्तन कर दिया गया। इस नए सिद्धांत को नव डार्विन सिद्धांत या आधुनिक संश्लेषीसिद्धांत कहा गया। इस सिद्धांत के अनुसार:-
जैव विकास के मूलभूत कारक-
प्राकृतिक वरण द्वारा चयन प्रक्रिया होने पर विकास होता है। विकास में जनन-विलगन विविधता की भी भूमिका होती है।
जैव परिवर्तन के विभिन्न स्रोत-
समष्टि के एक सदस्य में विविधता उत्पन्न होती है और यदि विविधता अनुकूल होती है तो यह विविधता प्राकृतिक वरण की प्रक्रिया के जरिए होने वाले विभेदित जनन द्वारा पूरी समष्टि में आ जाती है। विविधता निम्न में से किसी कारण से हो सकती है: