Types of Roots, जड़ के प्रकार

जड़

पौधे का वह भाग जो जमीन के अन्दर मुलांकुर से विकसित होकर प्रवेश करता है तथा प्रकाश के विपरीत जाता है, जड़ या मूल (root) कहलाता है।

मूल या जड़  में जिसमें न तो पत्तियाँ रहती हैं और न जनन अंग, किंतु इसमें एक शीर्ष वर्धमान (apical growing) सिरा रहता है। यह अवशोषण अंग, वाताप (aerating) अंग, खाद्य भंडार और सहारे का कार्य करता है।

Tap root

यह मूल रूप से दो प्रकार की होती है। एक तो द्विबीजपत्री पौधों में प्राथमिक जड़ बढ़कर मूसला जड़ बनाती है तथा दूसरी प्रकार की वह होती हैं, जिसमें प्राथमिक जड़ मर जाती है। और तने के निचले भाग से जड़ें निकल आती हैं। एकबीजपत्रों में इसी प्रकार की जड़ें होती हैं। इन्हें रेशेदार जड़ या झकड़ा जड़ कहते हैं।

यह दो प्रकार की होती हैं-

1:- मूसला जड़

2:- अपस्थानिक जड़ ( रेशेदार जड़ या झकड़ा जड़ )

मूसला जड़ (Tap root): इस प्रकार की जड़े अधिकांशतया द्विबीजपत्री पौधों (Dicotyledonous plant) में पाई जाती हैं। इस प्रकार की जड़ में मूलांकुर (Radicle) विकसित होकर एक मुख्य जड़ का निर्माण करता है। मूसला जड़ के चारों तरफ पार्श्व शाखाएँ निकलती हैं, जिन्हें द्वितीयक जड़ (secondary roots) कहते हैं। द्वितीयक जड़ों से पुनः पार्श्व शाखाएँ निकलती हैं, जिन्हें तृतीयक जड़ (Tertiary roots) कहते हैं। इस प्रकार ये सब मिलकर मूसला जड़ तंत्र (Tap root system) बनती हैं।

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मूसला जड़ों के रूपान्तरण (Modifications of tap root): कुछ पौधों में मूसला जड़े खाद्य पदार्थों का संचय करके मोटी तथा मांसल हो जाती हैं तथा इस कारण इनकी आकृति भी बदल जाती है। आकृति के आधार पर मूसला जड़ को विभिन्न नाम से पुकारा जाता है।

(a) तर्कुरूपी (Fusiform): इस प्रकार की मूसला जड़े मध्य में फूली हुई तथा आधार एवं शीर्ष की ओर पतली होती हैं। जैसे-मूली (Radish)

(b) शंकुरूपी (Conical): इस प्रकारी की मूसला जड़े आधार की ओर मोटी तथा नीचे की ओर क्रमशः पतली होती हैं। जैसे-गाजर (Carrot)

(c) कुम्भीरूपी (Napiform): इस प्रकार की मूसला जड़ों का ऊपरी भाग लगभग गोल तथा फूला हुआ होता है तथा नीचे की तरफ से एकाएक पतला हो जाता है। जैसे-शलजम (Turnip), चुकन्दर (Beet) आदि।

(d) न्यूमेटाफीर (Pneumataphore): राइजोफोरा (Rhizophora), सुन्दरी (Sundari) आदि पौधे जो दलदली स्थानों पर उगते हैं, में भूमिगत मुख्य जड़ों से विशेष प्रकार की जड़ें निकलती हैं, जिसे न्यूमेटाफोर कहते हैं। ये खूंटी के आकार की होती हैं, जो ऊपर वायु में निकल आती हैं। इनके ऊपर अनेक छोटे-छोटे छिद्र होते हैं जिन्हें न्यूमेथोडस (Pneumathodes) कहते हैं। जैसे- राइजोफोरा, सुन्दरी आदि।

अपस्थानिक जड (Adventitious root)

इस प्रकार की जड़े एकबीजपत्रीय पौधों (Monocotyledonous plants) में पायी जाती हैं। इस प्रकार की जड़ में मूलांकुर (Radicle) बीज के अंकुरण (germination) के पश्चात् नष्ट हो जाता है। मूलांकुर के अतिरिक्त पौधे के किसी अन्य भाग से विकसित होने वाली जड़ों को अपस्थानिक जड़ (Adventitious root) कहते हैं।

अपस्थानिक जड़ों के रूपांतरण (Modifications of adventitious roots): भोजन संग्रह, पौधों को यांत्रिक सहारा (Mechanical support) प्रदान करने अथवा अन्य विशिष्ट कार्यों को करने के उद्देश्य से अपस्थानिक जड़ें अनेक प्रकार से रूपांतरित हो जाती हैं।

(A) कन्दिल जड़ें (For storage of food):

(i) कन्दिल जड़ें (Tuberous roots): खाद्य पदार्थों के संचय के कारण इस प्रकार की अपस्थानिक जड़ की कोई निश्चित आकृति नहीं होती है। जैसे-शकरकद।

(ii) पुलकित जड़ें (Fasciculated roots): इस प्रकार की अपस्थानिक जड़ों में अनेक मांसल फुली हुई जड़ें गुच्छे के रूप में तने के आधार से निकलती हैं। जैसे-डहलिया (Dahlia)

(iii) ग्रन्थिल जड़ें (Nodulose roots): इस प्रकार की अपस्थानिक जड़ें अपने सिरे पर फ्लकर मांसल हो जाती हैं। जैसे-आमहल्दी (Mango ginger)

(iv) मणिकामय जड़ें (Moniliform roots): इस प्रकार की अपस्थानिक जड़े थोड़े-थोड़े अन्तराल पर फूली रहती हैं। ये आकार में मणिकाओं की माला की भाँति होती है। जैसे-अंगूर, कोला (Bittergourd)

(B) यांत्रिक सहारा प्रदान करने के लिए (For providing mechanical support):

(i) स्तम्भ मूल (Prop roots): कुछ पौधों की शाखाओं से अनेक जड़ें निकलती हैं जो मोटी होकर भूमि में प्रवेश कर जाती हैं। इस प्रकार ये वृक्षों की लम्बी एवं मोटी शाखाओं को सहारा प्रदान करती हैं। इस प्रकार की जड़ें ही स्तम्भ मूल (Prop root) कहलाती हैं। जैसे-बरगद, इण्डियन रबर आादि।

(ii) अवस्तम्भ मूल (stilt roots): इस प्रकार की जड़ें मुख्य तने के आधार के समीप से निकलकर भूमि में तिरछी प्रवेश कर जाती हैं और पौधे को यांत्रिक सहारा प्रदान करती हैं। जैसे-मक्का, गन्ना आदि।

(iii) आरोही मूल (Climbing roots): इस प्रकार की जड़ें हर्बल तनों की सन्धियों अथवा पर्व सन्धियों से निकलती हैं तथा पौधों को किसी आधार पर चढ़ने में सहायता करती हैं। इस प्रकार की जड़े अगले सिरे पर फूलकर छोटी-छोटी ग्रन्थियाँ बनाती हैं, जिनसे एक तरह का चिपचिपा द्रव स्रावित होता है जो तुरन्त ही वायु के संपर्क में सूख जाता है। जैसे-पान, पोथोस आदि।

(C) अन्य जैविक क्रियाओं के लिए रूपान्तरित अपस्थानिक जड़े (Roots modified for performing other vital functions)–

(i) चूषण मूल (Sucking roots): इस प्रकार की अपस्थानिक जड़ें कुछ परजीवी पौधों में विकसित होती हैं, जो पोषक पौधों (Host plants) के ऊतकों में प्रवेश कर भोज्य पदार्थों का अवशोषण करती हैं। जैसे-अमरबेल, चन्दन आदि।

(ii) श्वसनी मूल (Respiratory roots): इस प्रकार की अपस्थानिक जड़ें कुछ जलीय पौधों (Aquatic plants) में पाई जाती हैं। इन जलीय पौधों की प्लावी शाखाओं (Floating branches) से विशेष प्रकार की नर्म, हल्की एवं स्पंजी जड़ें निकलती हैं जिनमें वायु भर जाती है। इस प्रकार की जड़ें पौधों को तैरने एवं श्वसन में मदद करती हैं। जैसे- जूसिया। 

(iii) अधिपादप मूल (Epiphytic roots): इस प्रकार की अपस्थानिक जड़ें अधिपादपों (Epiphytic plants) में पायी जाती हैं। इस प्रकार की जड़ें पत्तियों के कक्ष से निकलकर हवा में लटकती रहती हैं। इन जड़ों में वेलमिन (velamen) नामक आर्द्रताग्राही स्पंजी ऊतक उपस्थित होता है, जो वायुमण्डल की आर्द्रता को अवशोषित करता है। जैसे- ऑर्किड।

(iv) स्वांगीकारक मूल (Assimilatory roots): इस प्रकार की अपस्थानिक जड़े तने के आधार से निकलकर फैल जाती हैं। ये हरी, लम्बी एवं बेलनाकार होती हैं। इनमें हरितलवक (Chlorophyll) भी पाया जाता है जिस कारण ये प्रकाश संश्लेषण क्रिया करती हैं। जैसे- सिंघाड़ा, टिनोस्पोरा (Tinospora) आदि।

जड़ के कार्य (Functions of root):

यह पौधों को भूमि में स्थिर रखती है।

मूल रोम (Root hairs) तथा जड़ों के कोमल भाग जल और घुलित खनिज लवण का अवशोषण करते हैं।

जड़ें अवशोषित जल एवं खनिज लवणों को ऊपर की ओर तने में और पत्ती में संवहन करते हैं।

कुछ जड़ें अपने अंदर भोज्य पदार्थों का संग्रह करते हैं प्रतिकूल परिस्थितियों में इन संचित भोज्य पदार्थों का पौधों द्वारा उपयोग किया जाता है।

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